गुलाब, गुलाब सा खिल उठता है,
भावना का पुट, और
मेल मन का
मिलाकर
कोई जब कुछ
बनाता है,
कुछ अलग ही
स्वाद आता है,
इसको चखने से।
वही नींबू, वही पानी
वही चीनी और
थोड़ा सा नमक सेंधा,
वाह!
क्या कहें
कैसा हो जाता है,
तब पीने में,
जब खुश हो के
कोई, दिल से,
तपती, झुलसती
गर्मी में मात्र,
मुस्कुरा के रख देता है,
सामने
बहुत धीमें से।
सच कहूं तो
इसे पीने से पहले ही
तन मन सब
गुलाब, गुलाब
सा खिल उठता है,
न कि इसे पीने से
बस इस गिलास को
केवल देख लेने से।
जय प्रकाश मिश्र
द्वितीय पुष्प
शिखर अच्छे लगते हैं,
वो दूर से दिखते हैं,
आसपास को
पछाड़ते कुछ
अलग ही
नजर
होते
हैं।
उनकी
छाया भी
लंबी होती है,
उन कंपनियों सी,
जो दुनियां में बस
गिनी चुनी, कुछेक होती हैं।
इन बड़ी कंपनियों की छाया लंबी हो
या न हो, पर वो सब पर छाई रहती हैं,
ये बड़ी कंपनियां इतनी बड़ी
क्यों और कैसे बनीं...
और बनी रहती हैं
क्योंकि वे
चाहे अनचाहे
जाने अंजाने सभी
छोटे बड़े की छोटी बड़ी छुपी
जरूरतों में भीतर से
जुड़ी होती हैं।
ये दिखती
तो नहीं
पर
आप को
सुविधा के नाम पर
खोखला करती रहती हैं।
आप ! आप गुलाम तो नहीं..
पर खरीदे गए मोहरे ही होते हैं।
आप के जीवन की हर धड़कन
उनके किमियागिरी के जाल
में फंसी होती है।
हम निरीह से
अनजान से
सारी दुनिया
दारी से
अपने
में
अपनी जरूरतों
में खोए रहते हैं, और ये
चौबीस घंटे हमारी खरीद फरोख्त
में ही बिजी रहती हैं।
खेद है,
हमारे हर सिस्टम में
ये कहीं न कहीं, किसी न किसी
माध्यम से जरूर जुड़ी होतीं हैं।
आधुनिकता का बाजार एक दिन
इनके संबल पर जब पूरा
टिक जाएगा,
तो, ये तो डूबेंगे ही
ये जमाना भी
संग में ही डूब जाएगा।
एक छलावा है ये आधुनिकता
बचो इससे,
ये डूबती नाव ही साबित होगी
दूर ही रहो इससे।
जय प्रकाश मिश्र
Comments
Post a Comment