चुलबुली सी यह सुबह 

है गांव में, 

शहर से अति दूर 

यह एकांत में।


साथ है, 

चिड़ियों की कूंज 

हर गली, हर खेत  में 

भीगे हुए खलिहान में,

सूखे हुए भी पेड़ में।


कूकता स्वर परिंदों का

उत्स सा है, फूटता 

बिखरता, 

कुछ इस तरह ज्यों, 

लड़ी टूटी गिर रही है, 

पत्थरो पर मोतियों की, 

पास ही ऊंचे शिखर से।


लग रहा है,

झर रहा झरना कहीं पर

दूर है, कभी पास है।

पर मृदुल जल छिटकता है 

कान पर मेरे यहां तक।

कुछ इस तरह मैं सुन रहा हूं,

कूकते, कलरव मचाते, कूजते

स्वर पक्षियों के ; 

जो घोलते हैं

रस मधुर 

कुछ इस तरह 

हर कान में।


चटकती, टूटती, रगड़ खाती

डालियां, सूखी लकड़ियां 

जिस तरह हैं जंगलों में,

नित्य ही आवाज करतीं।

ठीक वैसे बोलती है 

सारी चिड़ियां, 

सुन रहा हूं 

गांव के हर घर गली में, 

खेत में, खलिहान में।


बह रहा है उत्स सुंदर

इनके मुखों से

लग रहा है, गोष्ठियां  हैं, 

बाल शिशु की 

चुलबुलाती पास में।


बिना बोले, 

कुछ छिपा है राज इनमे

लग रहा है कह रहे हैं, 

जागो, उठो, जल्दी करो।


बोलते हैं मोर प्रातः काल ही

अपनी पिन्हकती 

सुरमई आवाज में, 

दूर तक सब शांत हो जाता है तब

बीते हुए उस 

एक क्षणिक अवकाश में।


लग रहा,

कुछ रोक कर 

यह बोलता है, 

अनुस्वार जैसे 

फंस गया हो 

कंठ में।

लाज की 

पतली परत 

को फंसा कर 

आवाज में 

बोलती है मोरनी है 

हा ! कंठ से !

फिर खींचती है देर तक

इसको कुजन में

हृदय से मानो वो 

कुछ तो कह रही है।


सुन सुन इसे 

हिल रहा है हृदय 

कंपित हो रहा है 

किनकता स्वर

खोजता प्रिय को, 

प्रिय वंश को, 

या प्रिया को

मुझे ऐसा लग रहा है।


पेड़ की साखों को लटका 

भूमि तक जब देखता हूं 

आस्नात नारी दल कोई  

नद से निकलता आ रहा है,

झूमता मंदिर की सीढ़ी चढ़ रहा हो, 

ठीक वैसे आंवले की लरछियां 

ले पत्तियों की मृदुलता 

भर अंग अपने, 

शीतल नवल रस 

जल से 

भीगी भूमि को स्पर्श 

करना चाहती हैं। 


मधुमास है इस गांव में

यह, घेर कर बादल खड़े हैं

पूछते है हिल रही इन पत्तियों से 

कौन है वह जगह जो बाकी बची है 

तृप्ति की सम्व्याप्ति से

मुझको बता तो।


आम के फल 

शहद व्यापी, अंतरों तक,

रंग सुनहरा हो गया है, श्याम से।

हिल रहा है कनक के 

कनफूल सा यह झूमता

डालियों बिच 

आम के इस पेड़ में।


पंगतें बैठी हैं चिटियां 

जीमती हैं 

टपके हुए इस आम के 

बहते हुए अमरस 

में भूली स्वयं को।

पास में यह झुंड 

चिड़ियों का लगा है 

चूसने में उन कुसलियों को 

बंदरों ने आज प्रातः ही अभी

नीचे गिराया था हिला कर डाल को।

जय प्रकाश मिश्र




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