एक बार जी लो फिर।

 

हर दिन, ये शाम, 

और उसके साथ 

एक अजीब सी उठा पटक,

मेरे भीतर, शुरू हो जाती है,

बढ़ते स्याह अंधेरों के साथ।


चुटुकती सी, एक चुहल लेकर 

'पर’ लगाए, पंछियों के

गहरे, सुदूर आकाश में, उड़ती

उभरती उसकी पृष्ठभूमि से

नन्हीं फुदकती चुहिया सी।


मन के अंधेरी गलियों की

रजस्वला स्मृतियों को कुरेदती, 

उसके खुराफाती बिलों से निकल, 

फुदकती है हर रोज, 

नए नए चूजों सी। 


मुरकती है, 

चटकती कलियों सी,

अजीब सी खुशी 

और उलझन लिए

अजीब सी जद्दो-जहद के बीच 

जेहन में, उभर आती है, रोज रोज।


ना जाने, कैसी है 

और कैसी थी, इससे जुड़ी दीवानगी! 

जो शाम के साथ साथ! 

बढ़ती जाती है,

बढ़ते स्याह होते 

धुंधलकों में; 

मुझमें।


मैं क्यों, 

कैसे और कितना! 

बदलने लगता हूं,

अपनी तसबीर से अलहिदा 

कुछ,  खुद से अलग।


ऐसा लगता है

कुछ हावी होने को है,

मन पर, 

मुझ पर, 

अपनी अस्पष्ट, भारी सी छाया लिए, 

समेटता है, मुझको

अपनी अंकुशी में

अपने अंक में कुक्षि में 

हर बार अकेला पाकर।


मट-मैला डाबर सा, 

पानी कहीं हिलता हो,

हवा के झोंकों से 

बहता भी हो, धीरे धीरे

हां सड़ी, काली पत्तियों के बीच से

कुछ ऐसा लगने लगता है।

कहीं भीतर, छुल छुल।


इंतजार करना 

किसी का 

कहीं रुक कर

कुछ देर और, और थोड़ा कुछ देर

बढ़ाते जाना कई बार आगे

थोड़ा उम्मीद की सांसे लेकर।

तकना इधर उधर प्यास में किसी

आंखों में कोई तसबीर प्यारी भरकर।

ठिठकना, बार बार,

थोड़ा रुकना, और फिर 

अपने को समझा, समझा कर

फिर, चल देना।

मन के भीतर ही नहीं

खाली रास्तों पर भी

जो पीछे से तकते हैं मुझे हैरत से।

ये सब क्या है।

मैं खुद ही सोचता हूं!


एक विवशता 

पकड़, रोक लेती है 

तभी

अपना 'मैं' भी 

निकल आता है वहीं।

मैं, हारता-हारता, खुद ही, 

अपने से ही, हार जाता हूं।

 

झूठ क्यों कहूं, लगभग हर बार

कुछ ऐसा ही होता है,

उनके भी साथ,

जिन्हें जिन्हें भी मैं 

जानता हूं, 

भी नहीं।


जैसे कोई मेरा पांव खींचता है, 

मन अपरवश सा लगता है,

बुद्धि किनारे बैठ, मुंह नीचे कर 

चुप हो रूनासी हो जाती है।


मैं पर-नियंत्रित सा 

चल पड़ता हूं 

उस तरफ 

जिधर 

न 

जाने का 

निश्चय लिया था अभी

थोड़ी देर पहले ही।


सब भूल गया है अब,

मैं भूत सा बढ़ता हूं, आगे

अब मैं, 

मैं नहीं 

एक छाया बन रहा हूं।


भविष्य की चिंता  

दुश्चिंतता सब घुल गई ।

वर्तमान नष्ट है। 

और भूत,? 

मैं खुद हूं।

ऐसा ही लगता है।


अब मैं, 

मैं... नहीं 

वो... ही है, चुंबक सा खींचता

जो मुझे खींच लाया था यहां। 

मैं  बस लिफाफा हूं, 

मेरे भीतर भरा है वो, 

कितने अच्छे से 

सोचता हूं बैठा बैठा।

यह सब कैसे हुआ !


तभी देखता हूं,

इन्हीं बदलते अंधेरों में

भीगते, बरसते, 

दृष्टि को धूमिल करते, 

साइन बोर्डों, हेड लाइटों की

भीगे सतहों पर चमचम चमकते,

प्रतिबिंबित होते पल पल बदलते

भागते चलचित्रों में,

मैं जाने कहां खोने लगा हूं।

भीतर से क्यों ऐसे बदलने लगा हूं।

सोचता भी हूं, 

सच तो सुनो !


टप टप बरसती बरसातों बीच

सूनी पड़ी काली काली सड़कों पर 

गिरती, भिगोती बूंदों में,

तिरती, घिरती घटाओं बीच

असमय होते, अंधेरों की ओट में,

ओस में सिमटती ठिठुरती ठंड लिए

स्याह होती, गहराती 

भारी सी होती 

मन की कोठरियों में।

मैं क्यों बंद होने लगा हूं।

मैं क्यों भीतर से 

इतना ऐसे बदलने लगा हूं।


इन्हीं मौकों पर बराबर

डूबते दिन के साथ

बढ़ती कालिमा के डेरों से,

कोई… 

धीरे..., बहुत धीरे...  से

बुलाता है.... मुझे।

आ..जाओ..! 

सुकूं… से भी

मिल, तो… लो! 

एकबार अकेले में।


वहां जाने से पहले…

जहां पंहुच… रोज

मुझे याद.. करते हो,

ठीक वैसे ही जैसे…

थोड़े से.., पेंदी में बचे..

………… पेय को 

पीने से आने वाले

सुकून.... के लिए..

देर.. तक गिलास को.. लगाए 

रहते हो... मुंह से अपने..।


पास तो बैठो…!

कुछ, गुनगुना तो लो! 

अपने ख्वाब के पल..

जिंदा... करो, याद करो..! 

उन्हे ख्वाबों में सही.. 

एक बार फिर सामने

सजा.. तो लो।


वो… बीता हुआ कल…, 

कोई गुदगुदाता हुआ.. वाकिया..!

आओ! पास आओ !

यहां केवल तुम और मैं होंगे…

किरदार, हां ‘वही किरदार’

फिर एकबार!


जब जिंदा होके भीतर तक

“तैरती शर्म फैली थी”, 

याद करो! तुम्हारे

लाल और थोड़ा गर्म होते 

गुलाबी से सुर्ख होते गालों पर

खुशी भरते हुए, 

भीतर तक!


‘यादों को बटोरो*, 

खुश हो लो’,

जी सको तो 

एक बार फिर से जी लो।


मुझमें डूबो, 

फिर डूबो, फिर-फिर डूबो। 

आज फिर उन्हीं खयालों में।

आखिर भागती इस जिंदगी में

तुम कहां, बचते हो, 

कभी अपने लिए!  

आज अब तो सोचो।


बैठ लो, न!  थोड़ी देर, 

आज उसके* लिए!

कहता है 

बड़े सलीके से कोई।

मुझसे, इन मौकों पे।

सुन सुन के कई बार

आगे बढ़ जाता हूं,

छोड़, वहीं पर सबको।


अपने को गहरे तक समझाता हूं,

जिंदा होते मन को मारता हूं,

धीरे धीरे मरा सा कदम बढ़ाता हूँ 

फिर उसी 

बेजान, उबाऊ महफिल में 

घुस, घुट मिल, जाता हूं।


समय से लड़ता हूं, 

पर पार कहां पाता हूं।

लगता है, 

मेरे भीतर भी कोई बदली है

घेर लेती है, मुझे 

ऐसे अकेला पाकर।

विचारो की बदली

मेरे भीतर ही उठती है

क्यों इतनी कशमकश लेकर।

मैं आजतक समझ नहीं पाया हूं।

जय प्रकाश मिश्र

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