मन फूल सा हल्का हुआ।

मन फूल सा हल्का हुआ 

क्या देखकर?  

तुम ही बताओ? 

मित्र हो! 

अग्रज मेरे! अनुज हो! 

कुछ भी नहीं, 

तुम!  हाय मेरे! 

तुम ही बताओ......कौन हो? 

पर साथ हो, 

इसलिए "साथी मेरे हो"

प्रिय!  साथी मेरे हो! 

सच कहूं, यह सोचकर  

"मन मेरा किसी फूल सा हल्का हुआ"।


कभी, सोचता था!  

मैं अकेला हो गया हूं! 

इस धरा पर! 

पर, साथ पाकर बदलियों 

की बिजलियों का, 

घन चीरता, हर ओर मेरे, 

कुछ गजब... उजाला फैला।

एक राही जा रहा था,

घन-अंधेरे, रात में,

पा गया, इस रौशनी को

खुश हुआ। 

कुछ दूर तक आगे बढ़ा,

चमकती इन बिजलियों 

की चमचमाती द्यूतियों में

सुरक्षित, वह घर गया। 

देखता हूं, घर मैं उसका! 

हंस रहीं हैं,

खिलखिलाती, बच्चियां,  

बस! ...., पाकर उसे! छूकर उसे! 

कुछ भी नहीं था पास उसके

दे सके उन बच्चियों को।

यह सत्य था,

ज्यादा अंधेरा, घर में उसके 

जाने न कब से, था भरा! 

"देख कर वह प्यार निश्छल, 

नन्हियों का बाप के संग, 

उस घन अंधेरे!"

मन मेरा, 

किसी फूल सा हल्का हुआ।


सुरमई सी, शाम का 'रंग' 

दिन ढले ही,'स्याह' होता 

देखता था रोज,

मैं एकांत में बैठा हुआ।

उड़ रहे, उन हिल रहे, 

'पंख' को आकाश में 

कुछ दूर पर ही, ओस में, 

छिपता हुआ, सफेद होता, 

देखता था नित्य ही बैठा हुआ। 

पर एक दिन मेरे पार्क में,

पास के पेंगे बढ़ाती झूलती

श्यामा किशोरी, संग 

आई, नटखट नवेली, प्यारी सी

रंग, चटख पहने हुए 

प्रिय चुलबुली थी।

एक गुड़िया, मोम सी

चलते हुए, छम छम छमकते,

देख कर, मन फूल सा हल्का हुआ।


झक सफेदी वस्त्र में 

लिपटी हुई

उस आयुषी, श्री रूपिणी, 

देवी-परा के रूप में,

रेख़ काली, बहुत पतली

नेत्र में चम चम चमकती, 

देखकर, 

मन फूल सा हल्का हुआ।


झूमती उस कली को, 

जो पिंक थी, 

पर बहुत पतली।

फूल सुंदर, 

मह-मह महकती, 

खिलती हुई,

ले पंखुरी स्निग्धा, नवल 

कमनीय अद्भुत, 

खिलखिलाती डाल पर उस 

डगमगाती, देखकर

मन मेरा, इस कली सा हल्का हुआ।

द्वितीय पुष्प

“श्रीगंगा जी दर्शन"

परिशुभ्रा,सतता, विमला,
भव्या, विलगा, अद्भुत वैभवधारिनी, 
दृष्टदृश्य नवला सत्या 
छुल छुल चरन प्रवाहिनी, 
कुजति, कूजती मधुरा, 
सर्वा, सर्वस्व सर्व पाप विनाशिनी 
विस्तृता, प्रशांता, सबला 
सकल आश्रय दायिनी। 
प्रलंबिनी भारतभूमि आलिप्ता,
सर्वमन प्रफुल्ल कारिणी।
यत काम्या तदाकारा,
श्री गंगा, श्री रूपिणी।
यह गंगा थी! यह गंगा थी।

गंगा कुमारी कन्या 
नटी, नर्तनकारिनी
पाषाणास्य हृदय रसरूपा
तुषार कण रूपिणी।
भेदिनी काल, करालाश्च, 
कठोर भूमि, चिदस्वरूपिणी।  
सरसा, मृदुलरसा, आरोग्या 
प्राणीनाम कल्याणकारिनी।
पलछिन पलछिन आप्ययिता लोका 
दर्शनात अभ्युदय कारिनी।
यह गंगा थी! यह गंगा थी।

हिमकण गल कर 
थे अंग बने
शीतल, सुंदर, 
निर्मल पावन
सुकुमारी वह, 
चलती फिरती
बन देवियों.. से 
रस्तों मिलती।
यह गंगा थी! यह गंगा थी।

दिप दिप दिपती 
थी तारों में
रेखा पतली सी 
रातों में 
कल कल बहती 
मैदानों में
जग तारन करती 
राहों में।
यह गंगा थी! यह गंगा थी।

आप पढ़ें और अपना मात्र एक शब्द मेरे लिए भी भेजें।

जय प्रकाश मिश्र






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