केवल खुशी के लिए ही जीते हैं
अंतर,
'बहुत थोड़ा होता है'
जब कोई हाथ बढ़ता है
"उनकी तरफ"
आता हुआ,
आहिस्ता, आहिस्ता,
ऐसा केवल हमें लगता है।
जिनकी आंखे,
निर्मल, स्नेहिल हैं,"नन्हे शिशुओं सी"
वो देखती हैं,
समझ लेती है, "अंतर्मन"
इन हिलती, तरंगित
होती टहनियों संग फूलों का,
इन हरे भरे खड़े, पेड़ों का।
देखो न, शिशु अबोध
पढ़ता है,
मुस्कुराता है,
क्षण क्षण
अंतर्मन
सबका
और मुख भी
आस पास बैठे लोगो का,
पहले समझता,
फिर हाथो को फैलाए,
उसकी ही ओर
आगे बढ़ता, उछलता है।
ऐसे ही,
"ऐसी ही" आंखे
जानती हैं, हर राज
मूक पेड़ों, बन लताओं,
और पत्तियों से लदी इन टहनियों का।
इनकी खुशी, इनका सुख,
इनका आनंद, इनकी तृप्ति
बहती है, निरंतर
इनके हिलने, लहरियाने
हिल दुलकने और नटने में।
अपनी, छोटी
बावली बिटिया सी,
नम् पत्तों संग
ये
पतली,
पतली डालियां
हर क्षण मुसकाती,
हिलती, हिलकती, शर्माती
दुनियां, देख देख
विह्वल हो इठलाती हैं।
पास आने वाले
हर, हवा के झोंके का
पूरे मन से, अभिनंदन, स्वागत
करती रहतीं हैं।
कौन इन्हें तोड़ देगा,
मरोड़, दुख देगा
ये अभी कहां जांनतीं हैं।
सुखी रहें ये सदा ऐसे ही,
झुरझुराती हवा, गुदगुदाती रहे, इनको
अशीषे और कामना
यही हैं,
हम सभी की।
पर यह पेड़,
उसकी ये सुगढ़ सी डालियां
सोचती हैं,
भूत को, अतीत को,
देखतीं हैं,
हाथ को
वर्तमान बन!
जो आ रहा है पास इनके,
धीरे धीरे!
नजदीक अपने।
मिलाती हैं,
अनुभवों से पूर्व के।
बदलती है ताज़गी, रंगोआब इनका
क्षण क्षण बदलते निर्णयों से।
देखता हूं,
कांपने में जो कंपन है ,
और खिलखिलाने में जो हलचल है,
ताज़गी रूपी मुंह है पता चलती है।
पर जो खिले फूलों की शाख हैं,
वो क्या कहें!
कैसे कहें!
जो हाथ आ रहा है
उनकी तरफ, वो
उसके फूलों का हत्यारा है?
या प्यार का दुलारा है!
सहलाएगा या नोच के ले जाएगा!
कैसे जाने?
पर वे वही नादान बच्चे है
जो सबका अंतर्मन जानते है;
चाहो तो तुम कभी
छू कर देखो!
प्यार से देखने पर
वे बहार से लबार हो जाते हैं।
लव लबों पर ले झूमते हैं,
दिलोजान से मेहरबान हो जाते हैं।
और मंशा भांपते ही
गलत तुम्हारी,
अपनी गर्दन नीची कर लेते हैं।
क्यों की वे हिंसक नहीं
सदा से अहिंसक हैं।
वे घृणा नहीं, प्रेम के ही पूजक हैं।
झुक जाती हैं, वे डालियां और फूल!
सामने तुम्हारे!
क्योंकि वे खुद मर कर,
जीवन देकर!
केवल जगती की
खुशी के लिए ही जीते हैं।
महकते है,
सुंदर रंगों को चुन चुन
निर्मम हाथों से
बार बार तोड़े जाने पर भी
अनवरत ताजे ताजे ही खिलते हैं।
वो फूल हैं, कलियां हैं, किसलय हैं
तुम चेतना के परम नायक! मनुष्य हो!
कुछ सीखो! अगर सीख पाओ तो इनसे!
मानो मेरी बात!
विश्वास करो!
सच कहता हूं!
एक बच्चे का हाथ
और उसकी नजर
पौधे, फूल, कलियां, चिड़ियां
बहुत अच्छे से भांप लेते है।
न मानो
तो देखो न
एक वधिक के
गांव में आते ही
सारे मवेशी और गाय
तुरत-फुरत, उसकी पदचाप सुनते ही
उसके अतीत की गंध सूंघ लेते हैं,
उसे पहचान, सारे स्टेप लेते हैं।
वो जहां हैं वहीं चौकन्ने, कान खड़े कर
भागने और बचने की कोशिश करते हैं।
"पर मालिक से उसी को
पगही पकड़ाने के बाद उदास हो
धीमे धीमे, मालिक को बार बार
पीछे देखते, वाधिक के साथ आगे चल देते हैं"।
यद्यपि वे पशु हैं,
चाहें तो,क्षण में, शक्ति तांडव मचा सकते हैं,
पर पालतू होने का धर्म अहिंसा निबाह देते है।
संसार सूक्ष्म भी है, मानो और
अटल विश्वास भी करो इसपर।
चेतना मनुष्यों से ज्यादा
हर ओर रहती है,
हमे पता हो, न, हो
पर वो अपना काम करती रहती है।
जय प्रकाश मिश्र
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