हे शक्ति! अदृश्य !
हे शक्ति! अदृश्य !
हो सर्वत्र वितरित !
भाव भूषित,
शून्य बन,
सबके हृदय में,
हो समाहित।
आओ
यहां बैठो,
नमस्कार!
बार बार, तुमको।
आस्था,
निष्ठा
संवेदना
के सुकोमल,
सहज, सुंदर, तंतु,
हम
"उर पृष्ठ के"
निज,
धड़कते जीवित,
सतह से,
विलग करके,
रोपते उस नमी में
जो करुण करुणा
निवसती
तेरे हृदय में,
आज से।
ये हमारे
पवित्र,
जीवित
उर तंतु
पुष्पित
पल्लवित हों,
तुम्हारी
करुणा से भरे
नम हृदय में
इस स्थापना से।
आशीष दो !
आशीष दो !
द्वितीय पुष्प
यह बचा… अवशेष…,
जो तुम.. देखते हो,
काग… आके… बैठता,
जिस शाख पर… अब
क्या मदिर….!
वैभव!
छिपा था
अंक इसके;
उन दिनों में
पूजते, नवतरुणियाँ
नवरसिक, थे तब।
यह मलिन
अवशेष भी
तब नलिन था, खिलता हुआ।
पूरा हुआ,...अभिमान…..था,
संसर्ग…. इसका…
थी लताओं को, ललक,
सानिध्य.. पाऊं।
अंग में सिमटू, सिमट कर
भूल जाऊं,
एक बन जाऊं,
मैं इसमें
मिल समाऊं।
कुछ इस तरह
उत्कृष्ट था
इतिहास इसका।
कूजती… कोयल यहां
एक नीड… था,
इस पेड़ ऊपर..।
कसमसाती.. कोपलें थी,
लचकती… इन
टहनियों पर…।
पत्तियों में
सरसराती… पवन
थी गुमराह… तब,
डालियों पर.. जिंदगी..
तब झूलती थी झूलना..।
विहंसते हंसते,
थे पक्षी..
कूजते.. कलरव
थे करते
पंख फ़ुर फ़ुर
फुरकते थे
उड़ते.. रहते
निशि दिवस वे।
हर सुबह कुछ खास होती
नम्रता हर ओर रहती,
स्पंद लेती डालियां
सिहरन सी भरतीं गात में।
उर बंध उन
कोमल लताओं संग
हिल हिल, बालकों से,
मुकरते थे बात से।
देखता मैं बैठ कर उस लान में
कितने सुंदर फूल खिलते प्रात में।
जय प्रकाश मिश्र
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