महल सपनो का बनाना चाहते हो,….तुम!

इन बदलते…

घुमड़ते… 

दर दर… 

भटकते… 

बादलों की 

सेज पर

महल सपनो का 

बनाना।

चाहते हो,….तुम!


शांति संग 

आनंद!

उस मे थिर रहे,

और फिर 

बादलों के 

संग…. रंगीले देश

उड़ना। 

चाहते हो, तुम!


दूर से… 

अति दूर से.. 

बादलों में डूब के..

नयन सुख… बिखरा हुआ

जो जो धरा पर..है बिलसता 

मुखर होता, बोलता है…

खिलखिलाते बिहंसता है…

बिन तपे.. इस सूर्य सा.. 

देखना भी..।

चाहते हो, तुम !


संग रहकर

बादलों के…

घूम कर… इन 

घाटियों में,

सूर्य की 

तपती किरण से..

त्राण लेकर… 

पेड़ की 

इन फुनगियों का..  

मधुर कोमल…

अस्तित्व को भी 

दीर्घ रखकर..

स्पर्श… पाना।

चाहते हो, तुम !


बादलों के 

रथ पे चढ़कर

शत रंजिनी, 

सत रंगिनी 

भूधर सुता 

के देश में

गगनचुंबी शिखर

ऊपर 

मर्त्य का यह

रूप लेकर 

परिभ्रमण

करना। 

चाहते हो, तुम !

नहीं होगा, नहीं होगा,

यह कभी भी नहीं होगा।

जय प्रकाश मिश्र








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