नदी का सच, मैं ढूंढता हूं।

इस समय में 

क्या क्या मिला है? 

समय किस पर 

बह रहा है? 

क्या ये

पल पल चल रहा है? 

कौन है  

जो… थिर खड़ा है? 


गुण है कोई!  

भाव है वह!  

या बदलता 

स्वभाव है वह! 

चुप खड़ा मैं 

देखता हूं! 

आर है वह, 

पार है वह! 

बीच के, 

मझधार है वह! 


सत्य क्या है! 

सोचता हूं,

सत्य को ही 

ढूंढता हूं,

सत्य को ही तोड़कर

मैं सत्य को ही 

खोजता हूं।

सत्य ही क्या मूल है? 

पवित्र है! जो सार है!  

इस विश्व का, हर काल में,

जो वर्तता है मात्र में! 

हर सांस में हर प्राण में! 


सत्य क्या, अनुभूति है! 

या पृष्ठ है, अनुभूति का! 

अनुभूति जिसपर उतरती है,

ज्ञान बन बन बुद्धि के संग 

इस जगत में खेलती है।

क्या प्राणियों से परे है यह! 

यथार्थता है विश्व का! 

यह सत्य!  क्या है? 


सत्य क्या छुपता हुआ कोई राज है! 

या सामने ही है पड़ा बिखरा हुआ! 

सच प्रचुर, बिखरा हुआ 

यदि है पड़ा;

तो ढूंढते हैं क्यों इसे वीरान में! 


त्याग कर सब बुद्ध, क्यों जंगल गए! 

क्यों साधु, बैरागी 

बिहरते पुलिन नद के,

गेरुआ रंग, रंग, हमारे वृद्ध जन

योगि, सन्यासी हिमालय क्यों गए? 


सोचता हूं सत्य को आवरण कैसा,

जो जहां, जैसा पड़ा है, सत्य वैसा।


तो सच यहीं है,

पल पल ”वही” है, 

हर पल वही है।

तो समय का, 

इस सत्य से 

संबंध क्या है?

ढूंढता हूं! 


दो पलों के बीच में

फिर क्या छुपा है? 

क्या ‘सच’ छुपा है? 

हां वही है! जोड़ता! 

हर एक, पल को

हर एक, पल से, 

घटना क्रमों के 

बीच में से

झांकता।


खोजते हैं? 

घटना क्रमों के 

बीच में क्या क्या छुपा है? 


आदि है, अस्तित्व है, और ध्वंस है।

आदि क्या है

पूर्व है।


अस्तित्व क्या है

सूचना बस….

बहते हुए, 

किसी एक क्षण की 

स्थिति पर, सत्य की

बदलते हुए, घटना क्रमों की मेड़ पर।


ध्वंस क्या है

नाश है, शून्य भी है, 

शिखर का अवसान भी।

हर एक क्षण पर बदलता,

सरकता, 

लय विलय का खेल करता।

हर किसी को  "एक करता"

ध्वंस ही है।


वह ‘सत्य’ क्या है? 

संसार है! बहता हुआ! 

या कुछ अलग! 

इस समय नद से।

है वही परिणाम 

सारे सत्य के भी 

सत्य का।


तो संसार क्या है!

घटना क्रमों का 

कोई समुच्चय 

एक संग घटता हुआ।

या कहें की पूर्व के 

अवसान की सच सूचना है।

तो सच ही क्या है,

सूचना है,

आदि के अवसान का

परिवर्तनों का 

सतत है, जो चल रहा 

हर वस्तु में

हर व्यक्ति में, 

हर भाव में,

पल पल बदलती 

सृष्टि में।


पर मैं नहीं संतुष्ट हूं! 

इस बात से! 

मैं सोचता हूं; 

सूचना के

बीच में 

क्या क्या छुपा है? 

सूचना बस क्षणिक है।

हर क्षण बिखरती 

पूर्व बनती, भागती है।

सत्य को ले दौड़ती है

सत्य से ही दूर होकर! 


तो सत्य क्या  

वर्तमान है, किसी पूर्व का।

दूर हमसे, घट रहा, 

लेकिन निरंतर, इस जगत में,

दृष्टि में अपने है आता, बाद में

यह सोचता हूं।


पर ध्यान में मैं देखता हूं! 

एक संयम पर टिका हूं! 

नदी को मैं शिखर पर,

छल छल बरसते देखता हूं! 

बन रही धारा गरजती 

उतरती है, वेग से! 

संकोच लेकर बह रही है

छोड़कर कर संवेग को! 

सींचती है खेत को,

शस्य पैदा हो रहा है! 

तृषित पानी पी रहे

हर प्राण पानी पा रहा है! 

मिल रही सागर से कहती

आ गई, मैं आ गई! 

चढ़ रही आकाश देखो

बादलों के संग वो

घूमती पृथ्वी पे सारे

बरसती है शिखर पर वो।

एक ही है सत्य 

वह नदी ही है 

बादल, पवन, बर्षात, सागर 

बन रही हर एक क्षण में।

सच समेकित यह नदी है

सच समेकित यह नदी है। देखता हूं! 

पर नहीं, इस नदी का सच, 

मैं और आगे ढूंढता हूं।

क्रमशः आगे।

जय प्रकाश मिश्र









Comments

  1. जीवन में सच या सत्य की तलाश एक आम बात है। जीवन और सृष्टि का सच क्या छिपा रहस्य है या खुली किताब कुछ तो है। सच आवरण का मोहताज क्यों। महान तो मणि सा पारदर्शी ही होगा।
    इतना स्वच्छ की नंगी और दूषित आंखों से देखे ही न।श्वाद इसीलिए हम सत्य को देख नहीं पाते।

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