बचपन की बगिया में, फिर से जी आता था।
यों तो फूल
जो पथरीले,
तप्त, सूखी, जगहों
पर उगते हैं,
हठीले होते हैं।
रंग इनके
सिंदूरी, चटक, लाल
प्रकृति से, ले ले के,
कुछ अलग से
खिले होते हैं।
पत्तियां तहदार
गहरे, हरे रंगों की
सलीके से लगी होती हैं।
बस शूल घातक
कंटीले विषधर तन पर
उगे रहते हैं
लोग देखते तो हैं
एक नजर, प्यार से
भर कर पूरी नजर,
पर हट के
किनारे से
जाने क्यों
निकल
लेते है।
द्वितीय पुष्प
वह
मौन बुलावा था
उसका!
या खुशबू थी,
उसकी,
बह आती थी,
मुझ तक,
जब, तब
नन्हे नादान,
चित-पावनी
ब्राह्मण-शिशु की
निर्दोष, गहरी, नीली, चमकती
आंखों सी।
पावन करती मुझको,
सहज ही
अंदर तक,
छू, लेती थी।
एक दिन
मैने पूछ ही लिया!
क्या नाम है तुम्हारा?
वो धीरे से बोली काम्या;
काम्या हूं मैं ।
मैं देखता
रह गया
उसको!
वह
स्नेह-पूत
करुणा-मयी!
भरपूर! उल्लास-पर्व सी!
चहकती!
चहुंओर फिरती रहती थी।
जबकि
ना उसमे देह थी,
ना आकार,
ना ही रूप, ना रंग
ना पैने नैन, नक्श,
न ही
कौमार्य का
अदराता औदार्य ।
कपड़े आभूषण
सब... सामान्य,
असामान्य था...!
तो
केवल उसका... मन!
मीठी वाणी...!
शीतल स्थिर
एकाग्र... चितवन!
जो बाहर से
दिखती तो
नहीं
थी,
पर बींध लेती थी।
अपने साथ;
बेलौस!
उन्मुक्त हंसी सी!
अपने संग ।
देखकर उसका
परिश्रमी स्वभाव
झलकते
पावन निडर
अंतरभाव।
मन गहराइयों तक
खुश हो लेता था।
कुछ क्षणों के
लिए ही सही
मैं बचपन की
बगिया में
फिर से जी लेता था।
जय प्रकाश मिश्र
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