चाहे मैं मिट्टी से खेलूं या वह मिट्टी मुझसे खेले।
चढ़ता रहा पहाड़!
जिंदगी का…
जिंदगी भर…
रोज-ब-रोज…
कदम-दर-कदम…।
राह-ए-कदम भी हुए..
दरिया-ए-दरख्त..
लोग ए लंगूर..
भोली लताएं…
खुशबू फैलाते फूल..
झरते झरने,
सुरभित.. हवाएं।
और न जाने कौन कौन..
याद करना भी… मुश्किल।
शिद्दत से..आज भी
जा रहा हूं, चढ़ता
सीढ़ियों पर सीढ़ियां
निसान-ए-उम्र पार करता,
आगे बढ़ता।
लेकिन
खेद यही है,
फकत उम्र की सीढी
चढ़ तो सकता हूं,
उतर नहीं सकता।
डेडलॉक से गुजरता हुआ,
अकेले, एकांत में कभी कभी
अपने ही अतीत से अपने,
वक्त की बातें करता।
पहुंचा हूं यहां।
इस मुकाम
पर, अब!
पर!
हाय!
यह क्या!
क्या उम्मीद थी!
और क्या मिला!
एक असीमित रेगिस्तान!
संबंध सारे ढीले, एक बियाबान!
ज्यादा पूछो मत,
यहां लोग गीले हैं।
यहां लोगो के मुंह
गुलाबी नहीं पीले हैं।
सब अब
अपने अपने में ही
हैं परेशान
बस देखने में
रंगीले हैं।
असली दुनियां तो
दूर से ही दिखती है,
ताज भी कुछ दूर से देखो
तभी उसकी
असली सुंदरता
पूरी दिखती है।
द्वितीय पुष्प
तृतीय पुष्प
आप भी कुछ लिखो
और मुझे भी भेजो।
जय प्रकाश मिश्र
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