भौतिक रंगोरूप में, अध्यात्म छुपा रहता है।
सबके जीवन!
सारी सृष्टि!
पूरी की पूरी यह व्यष्टि!
स्थिति, रूप, रंग, गुण, गंध
प्राणि पखेरू जड़ जंगम!
हाय! धाय! की दौड़ ये सारी,
पल में आती, पल में जाती!
सब कुछ क्या है?
जीवन क्या है?
जग यह!
क्या है?
बंधनों का जाल है!
उलझा हुआ यह!
या उलझे हुए
इन बंधनों को
खोलने का खेल है!
बंधनो में जिंदगी
क्या? फंस गई है!
या फंस गए है
बंध ही,
इस जिंदगी से!
पार कैसे
कोई पाए!
जिए थोड़ा
हंस भी पाए!
बंधनों की,
जिंदगी से,
आगे आए।
सोचता हूं!
जिंदगी एक बेल है, (लता है)
संसार की,
दीवार पर चढ़ती हुई,
फनगती यह, छैलती है, फैलती है,
उर बंध रूपी तंतु को
सतत आगे फेंकती है।
हर घड़ी हर सांस में
जाने न कैसी आस में,
लिपटती है, लपट सी
राग के संग मुंह मिलाती
स्वार्थ की, ही आग में
यह जल रही है।
अनुराग से या भाग्य से,
कुछ कर्म के प्रभाव से!
प्रारब्ध से आरब्ध से।
तान कर इन बंधनों को
बीच... में बैठी... हुई है।
जाने न कैसे, द्वंद में "खो" (भूली हुई)
जाने न किसको, खोजती है,
दूर.... जाती शांति.. से यह
शांति... को ही खोजती है।
बंधनो में पनप कर यह।
सार्थकता... ओढ़ती है,
दूर हो अपनी कला से *(स्वभाव से हट)
शेष.. सब कुछ सेजती। *(निरर्थक वस्तु इकठ्ठा)
प्यास को
मन में छिपाए घूमती है। *(अतृप्ति में)
पूर्णता की आस में
जाने किसे यह ढूंढती है ? *(उद्देश्य नहीं पता)
खोजती सुख पहुंच जाती
रूप की गलियों में यह!
प्रेम की कलियां
बिछाती,
रास्तों को पार करती
एक दिन,
यह अंत में
जर, जरा के देश में *(रोग व्याधि बृद्धता)
विकल मन ले घूमती है। *(दुखी होकर)
अनमनी सी,
घूमती,
यह कौन है!
विरमती अंतर्मनों में *(भ्रम जाल में फंसी)
रम रही है, *(दौड़ा दौड़ी करती है)
नेपथ्य से जो
जीवनों के झांकती है, *(जीवन में जीवन गायब है)
कौन है यह,
कौन है,
यह कौन है ?
आखिर! जीवन
है क्या?
क्या बाध्यता है! हम सभी की;
या चयन है, यह हम सभी का,
यहां आना, इस धरा पर,
थोड़ा रुकना, सहज हो
संरक्षणों संग बड़ा होना,
देखना जग, सीखना कुछ
करते जाना।
धारणा, अवधारणा,
अपनी बनाते भीग जाना।
यहां के
रस रंग
के संग डूब कर
...खुशियां कभी
..आंसू बहाना।
जिंदगी है!
भागती किसी शांति के
पीछे गुजरना,
शांति से महरूम होना
पत्थरों पर सिर पटकना,
क्या बाध्यता है!
तो सुनें!
होना ही है,
सब कुछ यहां!
बदल, सकता
नहीं, कोई इसे यहां।
इसी लिए हैं,
यह सारे के सारे,
छिपे, छिपे
रंग, रूप, ध्वनि,
गति, मति
बदलते हाव भाव,
सुख दुख, हानि लाभ,
और जीवन के सुलहले
धूमिल होते, परिणति के
अदभुत रंग।
यह सारे के सारे परिणाम हैं,
साधन नहीं।
जी! परिणाम हैं!
दूर, बहुत दूर के
उस अस्तित्व का!
जो इनसे निपट अलग था।
उसी कारण ये यहां
ऐसे हैं, बिखरे बिखरे।
ये आज यहां,
ऐसे ही नहीं!
यों ही नहीं! हैं समझो!
हुआ था इनका जन्म!
और संगठित थी संरचना!
जो तुम देखते हो आज
सहस्त्रों शताब्दियों पहले!
यहां जल था,
शांति थी,
मधुर पवन
की विश्रांति थी,
उर्वरा भूमि शतकों में बनी थी।
तभी यहां सद्मानवों
मनुष्यों की बस्ती थी। *(आदर्श मनुष्य)
हर चीज में एक गहरा
बहुत गहरा,
इतिहास छुपा रहता है।
जो दीखता नही
पृष्ठभूमि में सना रहता है।
जो होता, घटित होता दिखता है,
वो कुछ भी नहीं होता है,
जो "हो रहा है" दिखता है
उसके लंबे सूत्र
अदृश्य हो
बहुत पहले से बनते बनते
आज वर्तमान बनते हैं।
यही जब तुम्हारी आत्मा में
आत्मसात हो जाते हैं *(हम उन्हे समझ लेते है)
तो तुम्हे इस दुनियां में
उसके बाद दिखते हैं।
जो आज तुम खोज कर इतराते हो
सोचो सदियों ने, सदियों में
आहिस्ता आहिस्ता कैसे
सोच सोच कर बनाया होगा
तुम्हारे आज के लिए इन को।
.....तब से।
कैसे रोकोगे
कुछ भी होने से तुम!
कुछ तो सोचो!
जो नदी का पानी,
दरिया, सागर, झीलें, जमीन, पर्वत
और जो यहां तूफान सा आया है,
उसे यहां लाने के लिए
वो ढाल प्रकृति ने
सदियों में, सदियों पहले से बनाया है।
मिटा दोगे!
एक दिन में! तुम उसे!
नहीं नहीं नहीं
ऐसा मत करना!
वही तुम्हारे होने का कारण है!
वही असली जीवन है!
वह है, तो तुम हो!
यह प्रकृति और प्राकृतिक
तुम्ही हो!
तुम्हारा अस्तित्व इसी से जुड़ा है,
तभी तो आज तक बना है।
और तुम... हो...!
सुरक्षित...भी... हो !
इसीलिए कहता
हूं विश्रुत बनो।
उस सत्य को
अनुभव करो।
तेजी से परिवर्तन लाने की
युक्तियां बंद करो।
भौतिक रंगोरूप में
हमेशा अध्यात्म छुपा रहता है।
बिना सूक्ष्म की आज्ञा के
कोई रूप नहीं बनता है।
अस्तित्व के महत्व को समझो
वो तुम हो,
आज हो,
कल थे,
परसों होगे।
जय प्रकाश मिश्र
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