ओस के साथ साथ, ओस की तरह
ओस के साथ साथ
ओस की तरह,
मुलायम सोच,
उसकी
संजीदगी, के साथ
जिंदगी के पार....
जो... जो..., जैसी थी
जितनी थी,
उड़ती चली गई।
लथपथ थी
जो जगह,
करुणा, प्रेम
भावनाओं से
दिल, दिमाग,
व्यवहार, सलीकों में
उम्र बढ़ने के
साथ ही साथ
एक दिन
सूनी-सूखी रह गई।
यथार्थ कोमल नहीं
सदा
कठोर होता है,
यह भावनाओं में
नहीं
नियमों में बंधा
होता है।
फिर भी,
आप थोड़ा बचाकर रखना
उस ओस की,
तासीर
अपनी जिंदगी में
बस इतना ही
था
आप से कहना
इन थोड़ी सी
लाईनों में भरना।
पायदान : 2
हाथों में उसके
आभूषण
सोने के,
नग पत्थरों के,
कितने... भरे... थे,
मजाल क्या.. वो कभी
फूलों को छू.. भी सके।
हाथो और अंगुलियों से।
बोलते बच्चों से, ताजे फूलों को
वो, प्यार से छुए, सहलाए
कभी, उसके पहले
लटकते चमकते
वो गहने
वो नग
मासूम फूलों को
हिकारत, निरादर से
देखते हैं।
उन्हें नाज़ है वो
सदा वैसे ही रहते हैं
एक से अपरिवर्तित।
फूल तो फूल
छोटे बच्चो से
बिना प्यार दुलार
कुंभलाना उनका स्वभाव
उदास हो जाते थे।
अपने में ही एक दूसरे को
देखते तकते
उसके रास्तों से
जुदा हो जाते थे।
असली दुनियां की नमीं,
मुलायमियत
अब उसकी जिंदगी से
बहुत दूर थी।
उसकी नजरें पास की
हाजिर चीजों पे नहीं,
हमेशा कुछ अलग ही
खोजती थीं।
दूर,
कहीं दूर
अब वे क्षितिज पर ही टिकीं थीं।
बस 'वो,' आप कभी मत होना,
मुझे तो बस इतना ही था
आप से कहना।
पायदान : 3
कल कल बहो..
कुछ ऐसे..
नदी..भी देखती... रहे।
चांदनी
सतह पर पड़े...तो पड़े अपने
पर ..ऊपर से ही
क्षण क्षण
ढुलकती रहे।
बहना और थिरकना चांदनी के साथ
एक नहीं होता है
एक गति है, तो
दूसरे में रुकना होता है।
पायदान : 4
बड़ा वही,
जो झुके,
नीचे..तक
तुम्हारे लिए
तुम्हारे पैरों को छू ले।
चुने
कमियां तेरी,
कैसे भी, उन्हें हटा-दे,
और भर दे
असीमितता,
विस्तार, मुक्तता
तुझमें अपनी।
जय प्रकाश मिश्र
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