भूल जाऊं जब कभी राहें मैं अपनी.

चीजें तो साफ थीं 

दर्पण की तरह,

मेरी दृष्टि ही धुंधली थी 

दोष किसको दूं ।

क्या करूं! 

मैं गलत था! 

"दृष्टि मेरी" अपनी थी! 

और निर्णय भी मेरा था। 


उस बार की तरह नहीं, 

इस बार कुछ अलग 

मंजर था,

अबकी निगाह मेरी, पैनी

बिल्कुल दर्पण सी 

साफ थी, 

पर  "दृष्टिकोण में" 

अंतर था।

मैं गलत था 

क्या करूं 

"दृष्टिकोण मेरा"  था

निर्णय भी मेरा था।


लेकिन अबकी बार सब 

ठीक किया,

नजर ठीक की, 

चश्मा भी पहना

दृष्टि पैनी की,

अपना दृष्टिकोण 

भी बदला

सच कहता हूं,  

'सबका सोचा,'

पर ये क्या

बकी बार भी गलत मैं ही था, 

क्योंकि निर्णय इस बार

मेरा नहीं, लोगों का था।


फिर भी दुनियां चलती रही

उम्र कैसे भी कट ही गई।

ज्यादा सोचो मत! यहां

आइडियल होता ही नहीं।


तुम दृष्टि अपनी, 

दृष्टिकोण अपना

निर्णय भी खुद ही करो।

और फिर कभी गलत 

नहीं रहोगे, आगे कभी।

द्वितीय पुष्प

आशा में.. कितनी
सुधा....भरी. 
होती.. है,
बीत… 
जाती है,
इतनी लंबी 
जिंदगी.. फिर भी
कभी खत्म, 
नहीं…होती है ।

जो जहां से 
उपजता..... है, 
वहीं से.. 
खत्म होता.. है।
असाध्य 
मानसिक रोग 
लोगों के साथ किए 
बंचकता से 
शुरू होता है,
फिर लोगों की 
अनवरत कठिन 
सेवाव्रत से ही 
ठीक होता है।

तृतीय पुष्प

ये जो एक दौड़ है
जीने की यहां,
थोड़ी खुशनुमा 
सी क्यों नहीं रहती 
जब दौड़ना ही है, 
सबदिन, सबको, यहां! 
सोच तो? 

चतुर्थ पुष्प

भूल जाऊं जब कभी 
राहें मैं अपनी....,
छूट जाए 
याद मेरी वन बगीचे 
में किसी.....
हाथ मेरा 
तुम पकड़, मुझे रोक लेना, 
बावला मन, 
अपना लिए जब मैं फिरूं....।

उसे अपनी
इज्जत का डर था! 
मुझे परेशानी 
सबब थी! 
मैं जब कभी
बाहर निकलता! 
मुझे भीतर 
वो.. करता, रात दिन।

मैं आदमी था 
हिज्र का
लोगों से मिलता 
रातो-दिन! 
अब आदमी हूं 
उज्र का
लोगों से मिलना 
ही नहीं! 
यह सत्य अनुभूति पर आधारित पंक्तियां हैं,  उम्र के एक पड़ाव पर याददास्त धूमिल हो जाती हैं। हममें बूढ़ा होने पर बावला पन आ जाता है हम निर्बुद्धि बालक हो जाते हैं। हमारे नियामक सिस्टम दुनियावी दृष्टिकोण से ठीक काम  नहीं करते और अपने परिवेश में हम अप्रासंगिक हो जाते हैं। हम निरा और नग्न सच बोलते हैं और अपनो में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता।इस लिए ऐसे लोगो को जो जिंदगी भर समाज में रहे, जिनका एक दौर था उन्हें लोगो से मिलने जुलने और बाहर निकलने से बार बार रोका जाता है। और हमारी बातों को बच्चों की बात तय करार दिया जाता है। आप भीतर मसोसते रह जाते हैं। धीरे धीरे कठुआ जाते हैं और चिड़चिड़े हो जाते है फिर अत्याचार शुरू होता है। जिसे मैं लिखना नहीं चाहता।

जय प्रकाश मिश्र




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