ये खुशबू कह रही मुझसे कोई.. भीगी.. कहानी है।
इन पंक्तियों की पृष्ठ भूमि में एक पिता और पुत्र हैं जो अपने समय में हर तरह श्रेष्ठ रहे हैं। पद प्रतिष्ठा और प्राप्ति में भी। दूर है कई समंदर पार दोनो आपस में,अब। और बच्चे की नई आधुनिक गृहस्ती ही क्यों शानदार नौकरी भी है। पर अब दोनो का साथ एक साथ रहना और मिलना संभव नहीं है। सामान्य क्या, वर्षों बाद भी वे मिल नहीं पाते। पिता अब सामान सा मूक और पदबद्ध हो गया है। केवल अपनी टेलीफोनिक बातों से ही अपने जिंदा होने का संकेत इतनी दूर से दे सकता है, और एक दिन वह मर ही गया। अब उसकी सोच अपने प्रिय बेटे से बात कर स्थिति से अवगत करा आगे का संदेश देती है। पढ़े आनंद आएगा।
जनाजा तो
नहीं निकला
अभी!
मेरा…,
तूं रो मत!
अभी…. बाकी हूं!
दुनियां में तेरी।
भरोसा रख…!
इंतजार कर!
तेरी कसम!
सिर्फ, तेरे लिए,
मैं अब भी जिंदा हूं;
तेरे यहां,
आने से पहले तक,
या
मेरी सुपुर्दे खाक,
की खबर!
तुझ तक पहुंचे
तब तक।
वैसे ही जिंदा हूं!
मैं
आज भी
जैसे तूं सोचता था, तब
वहां रहकर!
मैं तो मिट्टी ही
पहले भी था!
तब अपनी नजर,
मिट्टी ही आज भी हूंगा!
अब तेरी नजर।
फर्क क्या था!
बात सुनने की थी!
मैं अब नहीं.. रहा!
ये आवाज
तुझे.. किसने दी!
गुलजार था, ये गुल! घर तेरा!
क्या! कोई खास बात!
मुझमें..थी!
मैं…. एक
शून्य… ही तो था!
जमाने…. से!
बस वही बात,
मैं अब शून्य हूं
तुम्हें, कुछ “नए शब्दों में*
सुननी थी"। *(मृत्यु)
सच है,
तुम्हारी सोच ही थी,
की….
मैं जिंदा हूं…
मैं जिंदा… था।
अब भी
तुम्हारी सोच ही है…
मैं किसी और
लोक का वासिंदा हूं….।
हां उस लोक का… वसिंदा हूं।
सामान!* *(देह मेरी जो अब मिट्टी है)
कौन से सामां की
बात करते हो!
अरसा गुजर गया,
अब मिलने की
बात करते हो।
हां सामान ही तो था मैं
न उठ पाता
न चल पाता था,
जहां जैसे रख दो
वहां वैसे ही रह जाता था।
फिक्र आगे की करो:
मैं तो गुजर ही गया!
मेरी बात.. ही छोड़ो।
बूढ़े…
कोई भी…,
चाहे
कही के हों…!
जो बाकी हैं बचे!अभी
आ, पाओ तो
उनके काम आना…!
तुम,चाहे जहां, कहीं रहना…।
द्वितीय पुष्प
तृतीय पुष्प वाहिका
(मात्र नौजवान मित्रों के लिए)
जय प्रकाश मिश्र
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