भावी खुशी में सब भूले हुए।
आज ’वो’… चिड़िया आई,
कूकती, बड़ी होकर,
अचानक ही,
मेरे घर पर।
पैदा हुई थी,
कभी बगीचे की
एक पतली सी
डाल ऊपर।
बहुत पहले,
लटकते
उन तिनकों
के खतौने में,
यादें आज भी ताजा हैं
अब भी, वैसी ही, मन के कोनों में।
जो उसकी मां ने..
बडे जतन से,
बड़ी मेहनत से,
ठंड में, उड़ उड़ कर
एक एक धागे, रेशे, पुआल
चुन चुन कर,
नन्हीं चोंच से,
बार बार,
ला ला-लाकर, ढोकर,
पीठ पर नहीं
अपनी नन्हीं चोंच पर।
भविष्य की उम्मीद लिए
खुशी खुशी
अनथक
परिश्रम करते हुए
भावी खुशी में सब भूले हुए।
अकेले, हां अकेले,
बुना था, सपनो का घोंसला
उसने केवल
और केवल
उन अपने बच्चों के लिए।
याद है मुझे,
तब उसकी मां
बार बार आती,
उसके अंदर बैठती।
जाने क्या क्या सोचती।
देखते ही देखते
अनेकों बार
फुर्र फुर्र उड़ती।
और आ आ कर
फिर फिर
उसी में बैठती।
एक अबोध
शिशु के लिए
उसके सुरक्षा,
संरक्षा
और भविष्य को
अपनी समझ
और अनुमान से
हर तरह तौलती।
मैं सोचता था,
कितनी मेहनत से बना रही है।
घोंसला मेरे लॉन में
जरूर, रहेगी, चहकेगी,
किनकेगी, उडेगी, बैठेगी,
कितना अच्छा रहेगा,
मैं भी खुश रहूंगा।
यह भी खुश रहेगी।
अगले दिन सुबह सबेरे
घोंसले के अंदर से
मधुर मधुर आवाजें आईं,
मैं याद करता हूं,"वो" पल
और "ये" चिड़िया,
जो इतनी रंगीन, फुर्तीली है,
अब, निःसंकोच
अपनी राजी खुशी,
जब मन चाहे
जहां तहां, आती जाती है,
इस छोटी सी बगिया को
अपना मानकर,
मौके बे मौके जरूर आकर
खुशनुमा मुंह लिए
थोड़ी देर को बैठ जाती है।
मुझे उसे देख,
सच कहूं,
अंदर से सच्ची
खुशी और शीतलता मिलती है
उस घोंसले में कितनी बेबस थी,
सांसों से स्पंदित होता था
नर्म नर्म फाहों सा इसका तन।
छूते डरता था, सोचता
पानी बिन कैसे बचेगी
यह नन्हीं सी नवल किरन।
पर वो मां थी,
उसे आते थे सारे जतन,
दिन दस भी नहीं गुजरे
वो छुटकी झांकने लगी बाहर।
पहली बार मैने उसे, उसने मुझे देखा,
क्या ललछुआं रंग, कैसी चिल्हकन।
नाजों की कली, देखते ही छुप जाती थी।
भीतर से कुर्र कूर्र आवाज कर
शायद
मुझे बुलाती थी।
मैं बहुत खुश था,
एक रिश्ता सा लगता था।
जब भी हम बाहर निकलते
एकबार उसे जरूर देखते,
भीतर से खुश होते।
दो दिन और बीते,
मैं उम्मीदों से भरा, घोंसले तक गया।
यह क्या !
घोंसला बिलकुल खाली था।
दोनो नन्ही उड़ चुकीं थीं,
मैं बस "मूक" सवाली था।
ये क्या हुआ ! कब कैसे हुआ!
कहां गईं! कहां होंगी दोनों !
खूब देखा चहुओर,
अचानक से यह सब देखकर ,
मैं सन्न था।
कैसे, पहले प्रयास में
उड़ी होंगी,
कितना विश्वास भरा होगा
उस मां ने इन नवजात शिशुओं में
और उसकी सलाह पर
अंधा विश्वास किया होगा
उसके बच्चों ने।
एक पग चलने से पहले
जमीं पर उतरने से पहले
सीधे घोंसले से उड़ जाना
समझाता रहा दिल को
पर वो नहीं माना।
आज उसे देखा मुंडेर पर
तो फिर वही खुशी लौट आई
लगता है मैने जीवन की कमाई पाई।
एक दिन अचानक दोनों नन्हीं
और तब की ’वो’ चिड़िया मेरे घर आईं।
मैं प्रफुल्लित हुआ ही था की
जाने क्या? कैसे हुआ!
मां चिड़िया
गिरती जमीं पर आई!
अरे ये क्या हुआ!
इसकी तो
हिलती नहीं है परछाईं!
थोड़ी देर दोनो,
ऊपर से ही चिल्लाई;
उसे वहीं छोड़ अपने अपने
घोंसले आईं।
और एक दिन देखा फिर
एक चिड़िया
उम्मीदों से नया घोंसला बना रही थी
मेरी बगिया में।
पर अब वह थोड़ा बड़ी हो गई थी,
और मैं,
मैं थोड़ा बूढ़ा।
जय प्रकाश मिश्र
जय प्रकाश मिश्र
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