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Showing posts from January, 2025

एक! विश्वास है; और मैं जानता हूँ…

उल्लसित हृदय के आगे जग छोटा सा दिखता है, उम्मीदों.. में बंध कर यह नभ बौना.. सा लगता है। भाव: उल्लास और उम्मीद से ही यह दुनियां जीती जा सकती है। पर ईश्वर विश्वास, उम्मीद और उत्साह से ही खोजे जाते हैं। हर किसी में बह.. रहा मैं,  एक सा, हर एक.. . क्षण पर क्या करूं! रुकता नहीं   मैं एक पल भीतर किसी के। भावना और भाव बनकर बह रहा हूं…, देख… तो  अंतर… में तेरे, आदि.. से,  चिर काल…से ही, संग तेरे।   भाव: ईश्वर हर समय इस समष्टि में सर्वमय स्थित है, वह अपनी क्षमता से ही विश्वरूप हो स्वयं गतिमान हैं। वह शक्ति हैं ऊर्जा हैं अतः बिना आत्मजय किए उनका स्थिर रूप संज्ञान में नहीं आता। तूं पकड़ता.. है, छोड़ता.. है रूप.. की बिछलन.. मेरी ये आंतरिक गहराइयों….. में रुचि.. तेरी बिल्कुल नहीं है। हूँ खड़ा…. तेरे सामने.. मैं  हंस रहा, खिल रहा, गुंजारता  आवाज देता… फिर रहा हूं देखता मेरी ओर तूं बिल्कुल नहीं है। भागता है तंग गलियों की तरफ तूं बंद हैं जो कुछ ही आगे, जानता हूं, पर छटपटाहट, बेकली तेरी देखकर सोचता हूं, बस अभी, आगे यहीं, थक जाएगा। भाव: हम संसारी लोग संसार को ...

यह भाग्य है हम सभी का...

भाव: गंगा जो हमारे बीच इन मैदानी इलाकों में आकर आज हम लोगों के करतबों के कारण इतनी क्षीण, हीन, और कान्ति विहीन हो बह रही है इसकी शोभा और मनोहारी सौंदर्य कभी हिमालय में जाकर देखें। आप उन सुंदर स्थानों की रमणीयता, स्वच्छता, शांति और नैसर्गिक निर्मलता देख कर हतप्रभ रह जाएंगे। उतने पवित्र उदगम से निकली, उतनी सुंदर वादियों में पली और अपने बचपन को गुजारी यह नदी वहां स्वर्ग से आई हुई ही लगती है । हमे इसका आदर करना चाहिए और इसे किसी भी रूप में मैला करने से बचना चाहिए यह पाप है हम मनुष्यों के लिए। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद ले, संकल्प ले हम इसे साफ रखेंगे । कभी... जाना, घूमने,  उस जगह मित्रों.... बचपन... गुजारा है जहां,  इस देवनद "श्री गंग" ने देखना वो राज्य, इसके पिता का...  निर्विघ्न, शीतल, शांतिमय,  है, स्वर्ग सा। कैसी सुगंधित....  अप्रतिम  स्वप्न सी, सुंदरता लिए उन वादियों से निकलती... है,  गंग यह... देखकर   मुग्ध... हो,  स्तब्ध ही  रह,  जाओगे। मणिधर कोई किसी मंत्र से अभिमंत्रित हुआ,  वश में हुआ हो,  उस तरह  मौन ह...

मैं, और मेरा यह 'मैं' दोनों एक नहीं,!

 मैं,  और  मेरा यह 'मैं'  दोनों एक नहीं,  अलग है, इसी जन्म..से..  नहीं,नहीं.., बीती..अनेक सदियों से। एक रहता है “सदा”,एक मिलता है “यहां”  बिखरी यहां इन दुनियावी रंगत  या खुद की बनाई  ग़ैरत की  गलियों  से। इस  दुनियां में मैं कहां था?  ये तो.. मेरा, वही ”मै”   मुझमें.. जिंदा था, जो कभी हंसता था, खुश होता था, कभी रोता था। कभी अपनो पे, कभी औरों पे  यहां, इस दुनियां में,  अब! थोड़ा पकड़  पाया हूं। उसे। इसे  ही ढोता  रहा,जिंदगी सारी  इतनी लंबी, बचाता रहा,  इसे ही जीवन भर,जमाने से,  लोगों से, अपनों से, खुद से,  लगने वाली सारी हवाओ से। मधुर मन की अपनाई खरोचों से,  चोटों  से। समय की मार के,  थपेड़ों से इसको  टूट-टूट कर बिखरने से। भागता रहा,  हर वक्त,  दौड़ा,  चौकन्ना रहा,  सब कुछ तो किया, पर! वो मेरा न था,  मैं उसका कब तक कितना होता। मै!   कौन था,  जाना ही नहीं!  खिड़कियां खुलती गईं  रौशनी आती रही जाती रही। द...

पुष्प पंखुरियां यहां हैं..

आज का कुंभ कुंभ लग्न, अमृतस्नान, नदी और हम  गृहस्थ, नर-नारी, संत सब एक ही संग, दानी, दान, सामान, स्थान व जरूरतमंद  ज्ञान, ध्यान, पुण्यपान भगवतजन प्रवचन। लालच, स्वार्थ, कामना, देशना, उपदेशना इकठ्ठा सारे सत्यमना धर्ममना, शान्तमना, कैसे हो सबकी पूर्ण याचना यही विडंबना कोई देने, कोई लेने, कोई लूटने आया यहां। आज की कविता: एक धीमी शाम एक् नील पट… ऊपर तना था  गहर.. होता क्षितिज में,  वन संपदा.. संग, जा मिला था श्याम.. होता,  सतत.. क्रमशः कालिमा के उर सघन में। एक होता, जा रहा था, मिल रहा था रंग सब फैला हुआ जो प्रकृति में,  छोड़ अपना रूप,  एक संग मिल रहा था,  घनी होती कालिमा की गोद में। घोष..  सब निर्घोष.. होते जा रहे थे..,  पंछियों के पर... सिमटते जा रहे थे,  शांति...  अपनी चादरें हर ओर ले ले दौड़ती थी,  प्राणियों के स्वर, विरल, कमजोर  होते जा रहे थे। और मैं बैठा हुआ, देखता इस शाम को डूबता खुद में, खुद में समाता, जा रहा था। पुष्प पंखुरियां: एक याग.. ही वह कर्म था  जिसके लिए वह गीत गा गा थक गया, वह साम था.. भूला हुआ मानव ...

फूल बन कर महक अब, ऐ जिंदगी!

पृष्ठ भूमि:  देख मत! कोई तार छू,  इस जिंदगी का  तराना कोई बज उठे,  बीते दिनों का साज़ में  उस  सिमट जा तूं,  आ,पास आ, साथ चल, फिर सफर पर... इस जिंदगी के। आगे:  आज की जिंदगी.. कितनी.... बड़ी!  तूं.... जिंदगी.... थी?  बढ़ गई कितनी अधिक....  इतनी...,  यहां तक, देखता हूं!  किस तरह से छैल कर,  तूं, फैल कर, घेर कर, इस घड़ी में... मुझको खड़ी है। लग रहा है,  आज तो,  तूं...,  बड़ी..., मुझसे..., हो गई है। अदनी सी थी,  अभी कल तलक.. किस तरह से  इतनी जल्दी अडानी.... तूं बन गई। भाव: आजकल की जीवनशैली और जरूरतों के चलते जिंदगी एक बोझ बन हम पर हावी हो रही है। इतना कुछ इसे चाहिए इतनी जल्दी जल्दी की लोग परेशान है, इस रोज बदलती और भागती जिंदगी से। अब यह जीवन आनंद नहीं जिंदगी समस्याओं का अंबार, अंबानी और अदानी जितना बड़ा होता जा रहा है। क्या.... करेगी? बांध... लेगी!   अन-किए... अपराध में,  मुझे भी क्या?   बंधनों में,  जरूरतों के नाम पर!  खिंचता हुआ  मुझे देखकर!  क्या... ...

तल है वह,आनत हुआ है तली में,

भावभूमि:  नदियां हमारी मां ही हैं यह सुंदर, साफ और अविरल बहें यह सबकी जिम्मेवारी है। यह हमे पीने का जल, अन्न के लिए सिंचाई, पर्यावरण के लिए अमृत सा कार्य करतीं हैं। फिर भी हम इन्हें गंदा करते हैं यह महापाप है। इन्हीं पर कुछ लाइने हैं, पढ़ें और आनंद ले। नदी थी वह,बह रही थी, धार में अपनी,सहज थी,  बीच में उस"मौज" के  मज़धार में यह चुलबुली,  असहज  मुझको लग रही थी,  लेकिन वो आगे बढ़ रही थी। शीतल, सुखद थी,  सु-कुमार छोटी,बालिका सी,  तरलिका वह.... पेंग भर-भर उर्मियों संग  अरुण की उन सुनहरी लय विलय होती, अप्रतिम  प्रभा में आरोह पाकर चढ़ रही, अवरोह लेकर  उतरती थी। खेलती,क्षण अनुक्षण  उछलती थी। नित्य उसके पास बैठा  आंखमीचे देर से अटकलों पर  चढ़ता,उतरता,सोचता था;  कौन सी वह शक्ति है,  इतनी विपुल  इतनी विपुल जलराशि को,  इस नदी की... अहर्निश चिर काल से ले  बह रहा है। रुकता नहीं! दिखता नहीं!  पर काम अपना कर रहा है। मैने कहा वह छुपा है..  गहराइयों में.. नदी की..  चुपचाप है,  मौन हो बैठा ह...

मैं तैरता आकाश में।

गणतंत्र दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं। भाव भूमि परिचय:  ध्यान एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम ध्यान वस्तु के साथ घुल जाते हैं उसी में मिल स्वयं विस्मृत हो लय हो, आनंदित होते है। अपनी संवेदना पूरी समष्टि, पृथ्वी से एकाकार हो जाती है। जागरूकता से ओतप्रोत होते हैं ध्यान में  हम  "वही" होते हैं "वहीं" होते है, खोए नहीं  यह मही* होते है।    संसार* होश में होते नहीं,  होश के ही बने होते हैं। ध्यान में इस, मैं नहीं,  शरीर भी नहीं... ईथर हुआ मै.... घूमता हूं  हवा में मैं फिर... रहा हूं देखता सबकुछ यहां... जहां में  मैं  फिर रहा हूं। शांत हूं, मैं हूं नहीं,  क्रोध कैसे मैं करूं.... पास रख सकता नहीं  रहा  मेरा  कुछ नहीं.... मुक्त हूं परछाइयों से... मुक्त हूं तुम कहोगे कल्पना मेरी है ये... मैं सच यही तो जी... रहा हूं। दूर हूँ अस्तित्व से, दूर हूँ हर राग से शरीर से मैं विहीन हूं, क्या करूं बस देखता हूँ  तुम सभी को, पास से कितने ......  हो गए हैं... राज सबके पा.... रहा हूं उड़ रहा गहराइयों... में बादलों के नदी के मैं बीच ...

वह गीत गा गा, भूल जाती है सभी कुछ

भावभूमि: मां इस संसार में मूल शक्ति ही नहीं उत्पत्ति का आधार है। संसार के शाश्वत गतिशीलता के पीछे मातृशक्ति है जो सदैव इसे अपने रक्त और अंश से आकार और रूप देती है। मां के सभी रूप सभी को सदैव वंदनीय है। मां से बना,  संसार सारा है यहां  दीखता.... मुझको जहां तक...  सकल जग.. फैला जहां तक,  आदि से ले.. आज तक…  आगे भी रहेगा.. जिस समय तक  सृष्टि का यह क्रम चलेगा। देखते हम आ रहे हैं, जन्म लेते जा रहे हैं, कौन पैदा यूं करेगा, सोच इसको!   सामर्थ्य इतनी, आप में, किसी और में,  संभव नहीं है,  कौन है वह! धैर्य इतना,  इस तरह, धारण करेगा। कौन है! वह   इस तरह… तर्पण करेगा,  सर्वस्व अपना… रात दिन…  निज स्वांस को, निज रक्त को..  निज स्वास्थ्य को,  पेट पर, रख रातदिन  शिशुभार यह इस तरह खुश रह सकेगा?  बोल! कोई है जहां में… मां है वो  बस, मां ही, है वो। भूल जाती है, तुझे ले गोद में  आनंद से  वो… फूल जाती है, खुशी में ना समाती..आप में,  गीत गा गा भूल जाती, आज को हर शपथ को, हर बात को  देखती ...

सोचता हूं सादगी का रंग कोई, ओढ लूं!

मनो भावभूमि: जीवन अजीब है, मीठा तो दूर की बात है, किसी किसी को तो फीका भी नहीं रहने देता, रस ही छीन लेता है। अनुभव और स्मृतियां इसके रास्तों को अपने अनुसार वक्त के साथ बदलती रहती हैं। सूखे पत्ते सा यह बहता है, हवा में उड़ता है, पर कल्पनाओं में खेलता है। लालसा और इच्छाएं वय बाधित हैं शीर्ष की स्थिति प्राप्त होने पर स्वतः भाग जाती हैं। जो पाता है मन से लेता नहीं और जो भागता है उसी पर तुलता है।इन्हीं पर यह कविता लिखी है, थोड़ा लंबी है पर आनंद अंत में आएगा जरूर और आप पढ़ें और आनंद लें यही मेरा पुरस्कार होगा। निराश नहीं करूंगा। सोचता हूं घोल लूं  हल्का सा.. मीठा,  थोड़ा... फीका  स्वाद कोई इस जुबां पर, अल-सुबह!  मैं आज इसपर। मैं ओढ लूं, सादगी का रंग कोई  रंग ले, जो... झांकती हो  हरित आभामय प्रकृति का.. खेस कोई.., बादलों सा..  ओढ लूं। सोचता हूं घोल लूं,  हल्का सा.. मीठा,  थोड़ा... फीका, स्वाद कोई  इस जुबां पर। अल-सुबह! मैं आज इसपर। जोड़ लूं एक रस नवेला  स्मृति में ललछुआं  अमरूद का इस,  इसलिए क्या तोड़ लूं?  अमरूद ताजा झूलता...

लिख सकोगे शब्द दो मुझे प्यार के क्या!

भाव: एक बूढ़ी मां अपने बेटे से बहुत दिनों से बहुत दूर है, वह बाहर विदेश में अपने पत्नी के साथ सुख से रह रहा है। मां ने बेटे को कुछ शब्द भेजे हैं। इन शब्दों के मर्म और अन्तस का आनंद लें। उसके उतावलापन का एहसास आप खुद करें। तुम खुश हुए, नाराज़ हो क्या लिख सकोगे  शब्द दो...  मुझे प्यार से... क्या?  सहज होना… कठिन है यह जानती हूँ..!  पर सरल होना…  मूर्खता क्या!  इसलिए मैं पूछती हूं नम्र होकर,  अरे बेटे!  लिख सकोगे  स्नेह के,  दो… शब्द  मुझको, प्यार से क्या?  कौन सा स्वेटर बुनूं  तेरे लिए, उसके लिए मैं सोचती हूँ, रातदिन किस रंग की,  किस ढंग की  एक फ़ोटो बहू के संग... खुद भी अपनी.... मुझे भेज दोगे..... आज.....  क्या?  तुम खुश हुए, नाराज़ हो!     तुम  लिख सकोगे,  शब्द दो  मुझे प्यार से आज क्या?  सोचती हूं!   कुछ अलग दूं!  इस बार तुमको... आगोश में आ-बांह तुझको भर सकूं,  इसलिए मैं  बांह लंबी  सिल रही हूं,  हाथों की  अपनी, तुझे थामने को...

जीवन कोई पहेली तो नहीं,!

भाव:  जीवन पहेली तो नहीं,  पहेली से कमतर भी नहीं।  क्या पींगे मारती है! मितरों  डोर अपनी , टूटने का इसे, डर..ही. नहीं।  खाली रहना, कभी न, भरना नियति है इसकी,  इस नियति से...  कभी भी बाहर,  यह निकली ही.... नहीं । आगे आज की कविता पढ़ें आनंद लें। यारों! कब हुई पूरी ये किसकी..!  आजतक,  खाली रही है!   खाली.. रही,  खाली..रही,  आदि से... खाली रही है। कुछ..भी करो ,  कितना भरो  छनती है यह, रिसती है यह बहती हुई, हर ओर से तले से छिजती है यह...। छलकती है सर्प सी  रूप ले ले, नवेले नित भरमती है, सरकती है। पकड़ते ही भागती है...  दौड़ती है तेज, कितना क्या कहूं तुमसे.. ये कैसे रूप क्षण क्षण बदलती है। छोड़ दो अब पकड़ना...  छलिया है ये.. पर क्या करोगे?   मन से बंधे हो!   मन है कैसा, हाय तेरा!   गेंद सा, उस रबर का थकता नहीं,  रुकता नहीं, जाने न कितनी बार से यह ड्रिपल करता, एक ही*  उस बिंदु पर..  देख कैसे उछलता... है। क्या करूं?  आदि.. से आदत है इसकी  और ...

घर क्या है?

भाव: वास्तविक घर, घर के भीतर होता है। यह ईंट पत्थर नहीं मानव और प्राणी होते हैं उनका स्वभाव और आनंद होता है जो उसमें रहता है न कि उसमें का वैभव और सुविधाएं घर होते हैं। जहां खुशियां उछलें, मस्ती झूमे, बच्चे किलकें आनंद झरे वहीं घर है। इन पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। क्या है घर? क्या यही... ईंट, पत्थर...  चुने,  सुंदर?   या उसमें रखे आरामदेह,  चम चम करते, शानदार फर्नीचर...!  ये लहरदार लहराते  झिलमिल पर्दे,  या लटकते,  रंग बिखेरते  जलते दियों संग, लुकते छिपते फानूस, टंगे ऊपर..  !  मेहराबें... हंसती आंखों सी  मदराती  मौन बुलाती , चुप रह रह, अंदर!  आखिर!  क्या है ये घर ? क्या यही.. सुंदर ईंट या चुने पत्थर...!  या जज्बात  जो गर्मजोशी से मिलें,  जहां, तुम्हें आकर!  वहां,  वहीं कहीं भी,  खुद ही, बाहर, भीतर  हरबार... मुस्कुरा-मुस्कुरा  मुस्कुराकर!   सोचें! क्या यही  अन्नमय भौतिक घर  जो दिखता है, मुझमें...  आपमें, सबमें..,  परिधान पहने...  ...

सुन! अरज भेजी है उसने।

हां! तुम्हीं को पुकारता... हूं!  पहचानते होगे, ऐसा मै जानता हूं!  आता जाता भी रहता हूं,  सांसों पर चढ़ कर...  प्रायः तुम्हारे घर..पर। मिलता भी रहता हूँ,  कभी मंदिर, कभी मस्जिद,  कभी गुरुद्वारों के अंदर.. कभी बिरवों में, फूल, पत्तों में मेमनों में, कभी फूल सी बरसती तेरी बूंदों में। खोजता, खिलता, लिखता.. एकतरफा बातें करता,  तुमसे,  याद करो, पहचानोगे... जरूर नाम भी लेता रहता हूँ  बराबर, प्रेम से, प्रेम में बिना किसी काम के यूं ही तुम्हारा.. यहां! इस जहां, चलते फिरते यहां वहां,  जब समय मिले, जहां। आज....  एक  "अरज" ले के आया हूं पास "तेरे"..., उसकी... जो  पहली बार  "मां"... बनी है,  तेरे बनाए प्रेम.. में, बहती..,  तेरे माझे में फंसी है,  रे....., सुन! उसने पयाम भेजा है,  परेशाँ है वह!  तुझे याद करती है,  अपनी अरज कुछ यूं कहती है.. "सुनो! हार गई हूं, वह, सब करके"..,  सुनते हो न!  सुनो! बरख्त ख़ालिश तुमसे, मुझसे कहलवाया है उसने,  अपनी निजी बात समर्पण किया है.. तेरे आगे  हार ह...

करुणा सिंधु, परम आनंदित..

भाव:  शिव कल्याण के देवता हैं, महादेव हैं, साक्षात करुणामूर्ति हैं। उनका नाम, ध्यान, वाग़, सब आनंद है। वह प्राप्ति के शिखर हैं और दीनजन के प्रति कृपा का धरातल हैं। नैसर्गिक शुद्ध हैं। सबके वंदनीय हैं। उनकी प्रार्थना के दो शब्द पढ़ें और आनंदित हों। शिव स्तुति ॐ तदाकार, ऊँकार,  शिव शक्ति रुपाय, वट वृक्ष विश्वास  नमः सर्व आस्थाय। करुनाय विश्वाय,  सदा सत्य-उत्साय, आर्त प्रान आधाय। ॐ नमः शिवाय। ॐ नमः शिवाय। महाकाल ओंकार,  स्वयंभू महादेव, कैलाश वासी.. काशी प्रवासी.. वलय कुंज शोभित निनादित महाकाल। परामशान्त, योगिध्यान,  शक्ति पुंज, एक मात्र  वैरागी, मूल अंश, नवांकुर, शेष रूप श्री शक्ति ध्यानाय ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय। सद्य:जात,  मन:संपोषित, चितवनि  नवल तरंगित। शिव शिव, वाचः परम पवित्रह, हिन्नद, पवन  हिडोलित। करुणा सिंधु परम आनंदित, विगत मोह मद शोभित। ॐ नमः शिवाय। ॐ नमः शिवाय। सुषमा सदन नवल रस शोभित अंकुर, सकल स्वरूपा, सर्व समन्वित,  त्रिभुअन पूजित अगणित रूप,अनूपा। जय सत्व स्वरूपा,  आश्रय रूपा  अवघड़ दानी भूपा  जय वेद प्रशंसि...

जिसपर तू फिदा फिदा सा है।

भाव पक्ष: समय कोई भी हो संसार दो रूपों में सदा से उपस्थित रहता है। पहला भौतिक दृश्य पक्ष, लौकिक और दूसरा आंतरिक, आत्म पक्ष या पारलौकिक। पहला सुंदर है प्रकृति का भाग है लुभावना है पर एक छलावा भी है। यह माया अर्थात मा यानी नहीं और या यानी 'जो' अतः जो दीखता है वह नहीं है। यह बाह्य जो दिख रहा है वह नहीं है बदलने वाला है। अतः चेतना के लिए त्याज्य है। भौतिकता छोड़ो तो शांति और स्थिरता मिल सकेगी। इसी पर कुछ शब्द हैं आनंद लें। एक पिता पुत्र से कहता है पुत्र बच्चा है सौंदर्य विमोहित है रंग रूप में बिंध गया है अतः पिता पूछता है कि .... इस लड़की के आत्म से तूं प्रभावित है या बाह्य सौंदर्य पर और उसे समझाता है आगे खुद पढ़ें। इन कपड़ों पे है तू राजी, या राजी इन रंगों पर। तुझको शर्म नहीं आती है, आंखो के इन चश्मों पर। रंग, अंग का छुपा हुआ है, अंगराग* के रंगों में, होठ रसीले, कहां दीखते  चम चम पॉलिश के भीतर। रंगी हुई, रंगीन, गुलाबों  सी दिखती, ये, सुंदर रंगत, कुछ ही दिन की बात है। फिर तो दिल तेरा ढूंढेगा, जिसकी तुझको चाह है। यह उपवन की नई कली, जिसपर तू फिदा फिदा सा है। यह रूपराशि का नकली वैभव,...

जीवेम् शरदह् शतम।

बीमारी एक है  सबको… सुना है.. आज मैंने.. यह,  बीमारी.. है वही,  … सबको सिमट... मिट जाएंगे  अब सब..। बीमारी इतनी  भीषण है, बंद होती हैं, …हर आंखे… नहीं फिर बुद्धि खुलती है नहीं फिर आंख खुलती है  सभी बस बैठ.. तकते है करें क्या, वे सभी मिलकर। नहीं कोई बात बनती है, निराशा घेर लेती है..। बीमारी है वही…  सबको, कौन बैठा यहां भीतर!   बताता राह दुनियां की,  घुमाता है सदा सबको। बताता कुछ नहीं  कल की… की आगे रास्ता है क्या.. बीमारी कौन सी है वो..  लगी है हाय! हम सबको..। सुना है, उड़ते उड़ते यह बीमारी भागने की है..  सभी भागेंगे बस इतना.. नहीं कोई अंत है उसका। छोड़ कर गांव बस्ती को.. खेत खलिहान मटकी को.. छोड़ मां बाप बहनों को.. सभी रिश्ते भरोसों को..। उड़ेंगे जल्द ही ये सब किसी दडबों की बस्ती में। समय से दूर बैठी जो हजारों साल पीछे हो। बचेंगे तब ही, ये सब, अब छोड़ दें सारी तकनीकें धरा पर तब बचेंगे ये जमीं के साथ होंगे जब। चलो कुछ काम करते है धरा पर हम सभी मिलकर जिएंगे अब... सभी मिलकर..  सभी का ध्यान रखेंगे,  छोटा हो बड़ा कोई,...

मै गलत था, आज तलक..

मै गलत था, आज तलक अंधों की दुनियां! को  कालिख की  काली  बंद कोठरी, समझता रहा…। यहां तो मामला ही  कुछ.. और  निकला.. आम समझ की  जस्ट उल्टी होती है हम अंधों की दुनियां आज खुद..  अंधा  होकर..अब देखा। क्योंकि अबतक  मैं खुद, अंधा हुआ ही नहीं था.. अंधेपन को.. अंधेरों से..  जोड़ता रहा था। उसी में उनकी दुनियां  बुनता.. सिलता  जोड़ता, घटाता, काटता अनुमानता रहा था। अब हुआ, आज अंधा, और  आज जाना!  कैसी  होती है, यह.. आभामयी, सुस्पष्ट..  बिल्कुल, उजली.. कालिमा मुक्त, बिल्कुल रज़तमयी श्यामता का संस्पर्श भी तो नहीं। अब जाना अंधेरों का महत्व वे ही तो आधार हैं हर प्रतिबिंब.. का आकार... का रूप... का दृश्य का..  वे ही  सृजन करते हैं,  इस मरे.. मन का। जो भटकता है  इन बनती, बिगड़ती, छनती छायाओं में  नित्य  उजाले और अंधेरे  के  खेल करता। कभी कहीं अटकता कहीं कभी भटकता । उलझता है इन बेर के से आनंदित करते,  हल्के चुभते  नुकीले कांटों   में जैसे पहली बार ओढ़ी गई किसी बच्ची की ...