मै गलत था, आज तलक..

मै गलत था, आज तलक

अंधों की दुनियां! को 

कालिख की 

काली 

बंद कोठरी, समझता रहा…।

यहां तो मामला ही 

कुछ.. और 

निकला..

आम समझ की 

जस्ट उल्टी होती है

हम अंधों की दुनियां

आज खुद.. 

अंधा होकर..अब देखा।


क्योंकि अबतक 

मैं खुद, अंधा हुआ ही नहीं था..

अंधेपन को.. अंधेरों से.. 

जोड़ता रहा था।

उसी में उनकी दुनियां 

बुनता.. सिलता 

जोड़ता, घटाता, काटता

अनुमानता रहा था।


अब हुआ, आज अंधा,

और आज जाना! 

कैसी 

होती है, यह..

आभामयी, सुस्पष्ट.. 

बिल्कुल, उजली..

कालिमा मुक्त, बिल्कुल

रज़तमयी श्यामता का

संस्पर्श भी तो नहीं।


अब जाना अंधेरों का महत्व

वे ही तो आधार हैं हर

प्रतिबिंब.. का

आकार... का

रूप... का

दृश्य का.. 

वे ही सृजन करते हैं, 

इस मरे.. मन का।


जो भटकता है 

इन बनती, बिगड़ती, छनती

छायाओं में नित्य 

उजाले और अंधेरे के 

खेल करता।

कभी कहीं अटकता

कहीं कभी भटकता ।


उलझता है इन बेर के से

आनंदित करते, 

हल्के चुभते 

नुकीले कांटों  में

जैसे पहली बार ओढ़ी गई

किसी बच्ची की ओढ़नी सा

फिसलता है नीचे

फिर अनमने ही ऊपर उठता है।


सच कहूं.. 

सफेद कागज पर

पेंसिल से बने चित्रों सा...

उकेर देता है, बेवजह स्मृतियां 

कितनी आदमी के मानस पर 

उन प्रिय चलचित्रों के पर्दे सा।


सच कहता हूँ 

हम अंधों की दुनियां 

काली नहीं... री

बिल्कुल तुषार पर पड़ती

पूर्णिमा की सफेद 

चांदनी में धुली 

चांदनी के सफेद, निदाग फूलों 

सी होती है।

उजाले इतने चिकने, स्निग्ध 

और मतलबी, 

पूछो मत..

कालिमा की स्याह एक रेख भी

रुकने नहीं देतो, अपने ऊपर।

चिपक नहीं सकते 

अंधेरे के एक भी दुबले से

दुबले.. रेशे इन.. पर।


छाया!  

छाया क्या होती है? 

हम क्या जानें, बादल..

बादल.. घिरते होंगे

तुम्हारे यहां.. 

यहां, हमारी दुनियां में ये, 

कहीं भी होते ही नहीं।


ऊंचाई.. निचाई.. 

आदमी… की हो या

धरातल… की 

हमे कोई… मतलब ही नहीं..।


हम अंदाज के परों… पर नहीं 

यथार्थ के खुले… सीनों पर 

पैर.. रखते हैं

फर्क.. रंग डालता होगा 

तुम पर

हम तो बस 

नेक दिल और श्याम-सफेद 

से ही, सारा काम लेते हैं।


अब सब बराबर हैं 

मेरे लिए 

उजाले में उजाला.. और 

अंधेरे में अंधेरा..

बस दो ही रूप, अब शेष हैं

आगे जीवन में मेरे लिए।


कालिमा.. इन रूपों की.. 

सदा के लिए…दूर कर ली है,

यारों… मैने।

जिंदगी, अब... भरपूर, बहुत

अच्छे से.. जी ली है

यारों... मैने।

जय प्रकाश मिश्र




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