एक! विश्वास है; और मैं जानता हूँ…
उल्लसित हृदय के आगे
जग छोटा सा दिखता है,
उम्मीदों.. में बंध कर यह
नभ बौना.. सा लगता है।
भाव: उल्लास और उम्मीद से ही यह दुनियां जीती जा सकती है। पर ईश्वर विश्वास, उम्मीद और उत्साह से ही खोजे जाते हैं।
हर किसी में बह.. रहा मैं,
एक सा, हर एक.. . क्षण
पर क्या करूं! रुकता नहीं
मैं एक पल भीतर किसी के।
भावना और भाव बनकर
बह रहा हूं…, देख… तो
अंतर… में तेरे, आदि.. से,
चिर काल…से ही, संग तेरे।
भाव: ईश्वर हर समय इस समष्टि में सर्वमय स्थित है, वह अपनी क्षमता से ही विश्वरूप हो स्वयं गतिमान हैं। वह शक्ति हैं ऊर्जा हैं अतः बिना आत्मजय किए उनका स्थिर रूप संज्ञान में नहीं आता।
तूं पकड़ता.. है, छोड़ता.. है
रूप.. की बिछलन.. मेरी ये
आंतरिक गहराइयों….. में
रुचि.. तेरी बिल्कुल नहीं है।
हूँ खड़ा…. तेरे सामने.. मैं
हंस रहा, खिल रहा, गुंजारता
आवाज देता… फिर रहा हूं
देखता मेरी ओर तूं बिल्कुल नहीं है।
भागता है तंग गलियों की तरफ तूं
बंद हैं जो कुछ ही आगे, जानता हूं,
पर छटपटाहट, बेकली तेरी देखकर
सोचता हूं, बस अभी, आगे यहीं, थक जाएगा।
भाव: हम संसारी लोग संसार को रूप रंग और उपयोगिता से परिभाषित कर व्यवहार करते हैं, पर वह ईश्वर इनमें कारण रूप में अदृश्य बना रहता है ठीक वैसे, जैसे हम मकान, दुकान, सामान बनाते है पर हम उससे अलग हैं, हम उसके कारण अवश्य हैं। ईश्वर अन्यान्य रूपों मे हमारे चहुंओर अपनी उपस्थिति प्रेम और ऊर्जा रूप में दिखाता है पर हम ध्यान नहीं देते और स्वार्थ के कामों में लगे रहते हैं।
यतन कर कर कोटि मैं,
कितने दिनों से
खोज कर, हर तीर्थ में,
मंदिरों के, गर्भगृह में
योग में, संयोग में,
तथाकथित नियोग में
सानिध्य में, संन्यास में
धर्म की सब पुस्तकों में
पारायणों में, व्रतों में
उपवास में..
सुमिरन, भजन, करता हुआ
खोजता और ढूंढता
परेशान हूं…।
इंतजार में तेरे! अरे!
मैं थक गया हूं
मर गया हूँ, अब बता तूं…
इसके आगे, क्या करूं!
एक! विश्वास है; और जानता हूँ…
मिलूंगा मैं एक दिन.. तुमसे
अकेले में कहीं…
इस लिए तुम्हे खोजता हूं.. आज भी..
रात दिन…, सुबहो सबेरे…,
उजाले.. और धुर अंधेरे…
हो कहां.. कुछ तो बताओ…
ओड… अपना,पेड़… अपना
क्या… चाहते हो,
यह समझ लूं और मान लूं!
ये रास्ता फैला हुआ…
इन घाटियों से मंदिरों का…
और मंदिर की हवा, ये पेड़ सारे…
शीतल, प्रशांति-त सारी फ़िज़ाँ
ये लोग सारे घूमते,
पूजते और मांगते, सब तुम ही हो…।
कूकते, ये पर लिए, उड़ रहे पंछी यहां..
खिल रहे ये फूल सारे,
उग रहे नक्षत्र प्यारे! तुम ही हो!
खोजूं कहां, पाऊं कहां, मैं भ्रमित हूं!
जाऊं कहां, तुम हो कहां!
मैं क्या करूं!
लो अब समर्पण कर रहा हूँ …।
तभी बैठा,
एक बच्चा हंस दिया
मुझे देखकर
मैं ठगा सा रह गया, उसे देखकर!
ये कौन था,
कितना सरल था, स्वच्छ था
निर्मल हृदय था
हंसी थी की दूध थी
स्निग्ध थी, नायाब थी
सच कहूं!
कुछ कह रही थी, अकेले में
साफ मुझसे…
मै यहीं हूं, शुरू से ही साथ तेरे…
देख तो,
तूं देखता तो है नहीं
बस खोजता है आंखे मूंदे..
मैं क्या करूं?
तूं ही बता कैसे मिलूं,
बोल मै सकता नहीं
डोल मैं सकता नहीं
पर देख कर हैरान हूँ
आंख मूंदे खोजता है, किसको तूं।
आंख मूंदे खोजता है, किसको तूं।
भाव: मन की आंखे खोल तुझे पिया मिलेंगे। भ्रम की आंखे खोल तुझे हियवासी कल्याण कारी शक्ति मिलेगी।
जय प्रकाश मिश्र
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