यह भाग्य है हम सभी का...

भाव: गंगा जो हमारे बीच इन मैदानी इलाकों में आकर आज हम लोगों के करतबों के कारण इतनी क्षीण, हीन, और कान्ति विहीन हो बह रही है इसकी शोभा और मनोहारी सौंदर्य कभी हिमालय में जाकर देखें। आप उन सुंदर स्थानों की रमणीयता, स्वच्छता, शांति और नैसर्गिक निर्मलता देख कर हतप्रभ रह जाएंगे। उतने पवित्र उदगम से निकली, उतनी सुंदर वादियों में पली और अपने बचपन को गुजारी यह नदी वहां स्वर्ग से आई हुई ही लगती है । हमे इसका आदर करना चाहिए और इसे किसी भी रूप में मैला करने से बचना चाहिए यह पाप है हम मनुष्यों के लिए। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद ले, संकल्प ले हम इसे साफ रखेंगे

कभी... जाना, घूमने, 

उस जगह मित्रों....

बचपन... गुजारा है जहां, 

इस देवनद "श्री गंग" ने

देखना वो राज्य, इसके पिता का... 

निर्विघ्न, शीतल, शांतिमय, 

है, स्वर्ग सा।


कैसी सुगंधित.... अप्रतिम 

स्वप्न सी, सुंदरता लिए

उन वादियों से निकलती... है, 

गंग यह...देखकर  

मुग्ध... हो, 

स्तब्ध ही रह, जाओगे।


मणिधर कोई किसी मंत्र से

अभिमंत्रित हुआ, 

वश में हुआ हो, 

उस तरह 

मौन होकर, शांत होकर, 

चुप! वहां... निः शब्द 

ही, हो जाओगे।


अद्भुत जगह है, निर्मल परम है, 

प्रशांति का है वास यह, 

खुद प्रकृति की, गोद में, दुबकी हुई 

कभी खेलती यह, 

आनंद से चहुंओर मिलकर, 

निर्मल गगन में, 

निर्मल हवाएं देवदारी 

बांज के पेड़ों से मिलकर, लौटतीं हैं।

किसी सदकृपा का राज्य हो 

फैला हुआ, दूर तक, तुम पाओगे...,

जहां तक यह... दृष्टि बंध कर... देखती। 


एक! सच कहूं! 

देख कर उस परम मधुमय देश को

मनोमय होते हुए 

आनंद के तुम देश में खो जाओगे।

दिव्यता के स्वप्न में खो जाओगे।


जिसकी कृपा पर सब टिका है! 

हो रहा है, चल रहा है, 

आभास वह, स्पष्ट मन में गूंजता है

सच कह रहा हूं, 

हर एक क्षण, आशीष के 

अतिरेक का झरना निरंतर झर रहा है.. 

बिना उसके एक क्षण भी

रुक नहीं तुम पाओगे।


सीमित हो तुम, 

सीमित तुम्हारी शक्तियां हैं,

उस जगह पर पहुंच कर 

बहुत अच्छे से, समझ, तुम पाओगे ।


तुम देखना की गंग यह, 

किस तरह

बालिका सी मुस्कुराती, 

खिलखिलाती, बिहंसती, 

उत्फुल्लता से, कूदती है.

किल्लोल करती

पहाड़ों के बीच से, 

बन घाटियों में, 

निर्भय अभय हो घूमती है।


ऊंचे पहाड़ों का तरल 

आशीष लेकर

चरण छूती, नम्रता से, 

कल कल निनादित नाद करती 

उतरती है।


उत्स भर कर प्राण में, 

संजीवनी ले स्वांस में

तेरे लिए, 

उस स्वर्ग से भी और उत्तम, 

जगह को यह छोड़ती है।


हृदय में कल्याण का यह भाव भरकर 

कदम दर, हर कदम आगे बह रही है,

जब छुओ इसको कहीं यह ध्यान रखो

निसर्ग की देवी है ये, वरदायिनी है।


भाग्य है हम सभी का यह देवनद 

इस तीर्थराज प्रयागराज में, 

इतने गिरे समाज में

छोड़ कर, अनुपम मनोहर 

भूमि को

विष्णु, कर्ण रुद्र, और देव के 

प्रयाग को

आज भी हो एक जुट 

अलकनंदा, धौलिगंगा, 

मंदाकिनी, नंदाकिनी,

पिंडरा, भागीरथी ले साथ मे

भूमि पर इस परम पावन बह रही हैं।

गंगा यहां पर बह रही है।

संकल्प लें हम और आगे 

मलिन इसको अब नहीं आगे करेंगे

साफ रखेंगे सदा, सेवा करेंगे।

जय प्रकाश मिश्र


 


सुरम्य कैसे देश, अतिशय  सुंदर हैं वहां 

 


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