पुष्प पंखुरियां यहां हैं..

आज का कुंभ

कुंभ लग्न, अमृतस्नान, नदी और हम 

गृहस्थ, नर-नारी, संत सब एक ही संग,

दानी, दान, सामान, स्थान व जरूरतमंद 

ज्ञान, ध्यान, पुण्यपान भगवतजन प्रवचन।

लालच, स्वार्थ, कामना, देशना, उपदेशना

इकठ्ठा सारे सत्यमना धर्ममना, शान्तमना,

कैसे हो सबकी पूर्ण याचना यही विडंबना

कोई देने, कोई लेने, कोई लूटने आया यहां।

आज की कविता: एक धीमी शाम

एक् नील पट… ऊपर तना था 

गहर.. होता क्षितिज में, 

वन संपदा.. संग, जा मिला था

श्याम.. होता, 

सतत.. क्रमशः कालिमा के उर सघन में।

एक होता, जा रहा था, मिल रहा था

रंग सब फैला हुआ जो प्रकृति में, 

छोड़ अपना रूप, 

एक संग मिल रहा था, 

घनी होती कालिमा की गोद में।

घोष.. 

सब निर्घोष.. होते जा रहे थे.., 

पंछियों के पर... सिमटते जा रहे थे, 

शांति... 

अपनी चादरें

हर ओर ले ले दौड़ती थी, 

प्राणियों के स्वर, विरल, कमजोर 

होते जा रहे थे।

और मैं बैठा हुआ, देखता इस शाम को

डूबता खुद में, खुद में समाता, जा रहा था।

पुष्प पंखुरियां: एक

याग.. ही वह कर्म था 

जिसके लिए

वह गीत गा गा थक गया,

वह साम था.. भूला हुआ

मानव सकल से..।

पर गा रही हैं 

आज भी नदिया दीवानी

पर्वतों पर, पर्वतों से उतरती 

जब हिम शिखर से

शान से अभिमान से।

कोई घूमता है प्रयाग में 

ना ना नहीं ना, 

और ऊंचे

कर्ण जोड़ों तब मिलेगा

सुन रहा संगीत वह, 

वह, गीत उनसे 

आज जा एकांत में।

जो बह रहा... वह सोम है

निकलती यह ध्वनि सुरीली... गान है 

उस सोम.. का।

कर्ण प्रयाग यात्रा की बधाई ।

जे पी मिश्र

पुष्प पंखुरियां: दो

पकड़ लो तुम… हाथ मेरा.. 

साथ  दो, एकजुट रहो…

दूर… मंजिल, दीखती.. है 

वो, मगर

संग चलेंगे.. साथ हम तुम 

जब प्यार में 

बीच से ये… रास्ता 

खुद-ब-खुद हट.. जाएगा।

पुष्प पंखुरियां: तीन

कुछ कह रही हैं आंख तेरी, 

सूखी हुई, सूजी हुई है, 

नम हुई हैं, 

रिसती हुई हैं...

समझता हूं, मानता हूं, जानता हूं,

पढ़ नहीं सकता इन्हें 

मैं क्या करूं

काश! कोई संत होता, समझ पाता

जान पाता, ठीक से कुछ राज इनका।

जय प्रकाश मिश्र




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