मैं, और मेरा यह 'मैं' दोनों एक नहीं,!

 मैं, 

और 

मेरा यह 'मैं' 

दोनों एक नहीं, 

अलग है, इसी जन्म..से.. 

नहीं,नहीं.., बीती..अनेक सदियों से।

एक रहता है “सदा”,एक मिलता है “यहां” 

बिखरी यहां इन दुनियावी रंगत 

या खुद की बनाई 

ग़ैरत की 

गलियों 

से।


इस 

दुनियां में

मैं कहां था? 

ये तो.. मेरा, वही ”मै”  

मुझमें.. जिंदा था, जो कभी

हंसता था, खुश होता था, कभी रोता था।

कभी अपनो पे, कभी औरों पे 

यहां, इस दुनियां में, 

अब! थोड़ा पकड़ 

पाया हूं।

उसे।


इसे 

ही ढोता 

रहा,जिंदगी सारी 

इतनी लंबी, बचाता रहा, 

इसे ही जीवन भर,जमाने से, 

लोगों से, अपनों से, खुद से, 

लगने वाली सारी हवाओ से।

मधुर मन की अपनाई

खरोचों से, 

चोटों 

से।


समय की मार के, 

थपेड़ों से

इसको 

टूट-टूट कर बिखरने से।

भागता रहा, 

हर वक्त, 

दौड़ा, 

चौकन्ना रहा, 

सब कुछ तो किया,

पर! वो मेरा न था, 

मैं उसका कब तक कितना होता।



मै!  

कौन था, 

जाना ही नहीं! 

खिड़कियां खुलती गईं 

रौशनी आती रही जाती रही।

दरवाजे! 

दरवाजे कहां! थे,

कभी मुलाक़ात हुई ही नहीं

कभी.. बंद भी होते हैं,

ये तो मैने देखा 

ही नहीं।

रास्ते! 

रास्ते थे, की 

बुलावा था मेरा.. 

हर वक्त, हर दिन, 

खुले-खुले रहते थे

जब जहां चाहा चलते गए

कभी किसी ने 

रोका ही 

नहीं।

मैं 

सुकुमार था

प्यारा था, क्योंकि.. पहला था

अभाव क्या होता है, कभी देखा ही नहीं।

छाया भी न पड़े अभावों की

एक भी काली, ऊपर मेरे 

इसकी व्यवस्था 

थी पूरी। 

पर ये मेरा मैं 

निकलता था, बाहर

लोगो पे जो मेरी हिफाजत करते थे।


कैसा प्यारा 

अल्हड़पन लिए

जीता था, अभी जल्दी ही 

मैं, बचपन में दुलारा सबका, 

बड़ा बेटा था

वजूद मेरा बढ़कर था

पूरी फैमिली में।

पढ़ लिख के डाक्टर भी बना,

इज्जत कितनी पाई! 

कितने काम किए, 

ना जाने कितनों की 

किस्मत भी बनाई बिगाड़ी मैने।

राज था, अवाम थी नीचे,

मैं बहुत ऊपर था,

लोग सलामी देते थे झुककर

मैं खुदाबक्श तो नहीं

बस थोड़ा कम था।

समय समय होता है, 

सब झर जाता है

फूल फल कितने हों 

एक दिन तो निझर आता है।

कुछ नहीं रुकता, 

सब बात कहने की है

सच बात! रुककर 

यारो! समझने की है।

हम खो जाते है, कहां, 

खोजते हैं सब

मिलते हि नहीं, 

वही ही पड़े रहते भी हैं अब ।

जय प्रकाश मिश्र

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