फूल बन कर महक अब, ऐ जिंदगी!
पृष्ठ भूमि:
देख मत! कोई तार छू,
इस जिंदगी का
तराना कोई बज उठे,
बीते दिनों का
साज़ में उस सिमट जा तूं,
आ,पास आ,
साथ चल, फिर सफर पर...
इस जिंदगी के।
आगे: आज की जिंदगी..
कितनी.... बड़ी!
तूं.... जिंदगी.... थी?
बढ़ गई कितनी अधिक....
इतनी..., यहां तक, देखता हूं!
किस तरह से छैल कर,
तूं, फैल कर, घेर कर,
इस घड़ी में... मुझको खड़ी है।
लग रहा है,
आज तो, तूं...,
बड़ी..., मुझसे..., हो गई है।
अदनी सी थी, अभी कल तलक..
किस तरह से
इतनी जल्दी
अडानी.... तूं बन गई।
भाव: आजकल की जीवनशैली और जरूरतों के चलते जिंदगी एक बोझ बन हम पर हावी हो रही है। इतना कुछ इसे चाहिए इतनी जल्दी जल्दी की लोग परेशान है, इस रोज बदलती और भागती जिंदगी से। अब यह जीवन आनंद नहीं जिंदगी समस्याओं का अंबार, अंबानी और अदानी जितना बड़ा होता जा रहा है।
क्या.... करेगी? बांध... लेगी!
अन-किए... अपराध में,
मुझे भी क्या?
बंधनों में,
जरूरतों के नाम पर!
खिंचता हुआ मुझे देखकर!
क्या... चाहती है?
लिपटती तो इस तरह... है,
खास है...! मेरे लिए!
तूं आस है, मेरे लिए!
इसलिए मेरे साथ है।
कितनी जरूरत है तेरी?
जानता हूं!
अभी तो बच्ची सी थी, मेरे सामने,
पहचानता हूं!
सच! देख कर हैरान हूं,
कल तलक बच्ची थी जो,
दुबकी हुई, कोने खड़ी थी
उल्लू सरीखी देखती, तकती हुई,
आज कैसे ताड़... सी लंबी हुई है,
झाड़ बन, निर्भेद्य हो,
दैत्य सी, एक रूप रेखा,
सामने मेरे खड़ी है।
भाव: आज लोग अनेक बंधनों में जैसे मासिक किश्तों और ई एम आई भरने में फीस, दवा, न्याय के खर्चे से परेशां हाल हैं। झूठे मुकदमों में, और प्रतियोगिताओं के खर्चों में पिस रहे हैं। यद्यपि जिंदगी पहले भी हम जीते थे, तब इतनी भारी नहीं थी इतनी मांग और जरूरत नहीं थी।बाजारूबाद हमे निगल रहा है और हम प्रगति और टर्नओवर, ट्रिलियन इकोनामी की बात करते घूम रहे हैं। आदमी तो मर रहा है मनुष्यता बिक रही है। जीवन जीना रोज एक दुधर्ष दैत्य से लड़ने से कम नहीं है।
दिन! अभी कितने हुए हैं,
क्या कहूं,
बीच में, उस गांव में..,
नदी के कछार में,
देवारे में उड़ रही उन आंधियों की धूल में
डोर-डांगर चराते,
खेदते और खिलाते
हर रोज.... सुबहो-शाम में..
नीम की उस सघन शीतल,
झिलमिली सी छांव में,
खेत और खलिहान में
बीच उनके सीटी बजाती
भागती उन हवाओ के बीच में
कितनी खुश थी जिंदगी यह,
नाचती थी, मटर जैसी टन-टनाटन
गीत गा-गा झूमती थी,
कैसे गल-बैंयाँ किए तूं,
संग मेरे, खेलती थी,
मेरे बिन तूं, स्वांस सी
चलती नहीं बेबस पड़ी थी।
भाव: जीवन अभी चालीस साल पहले शारीरिक श्रम से पूर्ण, निरोग, स्वास्थ्य और मस्ती से भरा था चिंता मुक्त था। स्थिर था और शांत था संयमित था। हम सभी रिश्तों को निभाते थे हंसते खेलते थे क्या आनंद था क्या प्रेम और आपसी मिलना जुलना था। खेतों, अपने जानवर, और बगीचों को ले हम संतुष्ट थे। फसलों से भरपूर सब्जियां, दालें, अन्न पैदा करते थे। प्रकृति के साथ मस्त थे अब कहां आ गए दुखी है सब जो जहां है वहीं कल को ले के परेशान।
ताकत ये तेरी देखकर, इस शहर में
एक सच कहूं!
हर ओर से, हारा हुआ, परेशान हूं मैं!
सोचता था! साथ है तूं,
और तेरे... साथ हूं मैं...
साथ हम आगे बढ़ेंगे, कुछ नया
अद्भुत करेंगे..
उदाहरण प्रस्तुत करेंगे...फिर
लौट कर हम घर चलेंगे।
सोच कर, तुझे साथ लेकर
मन-भरी उमंग चढ़कर
छोड़ कर अपनत्व सारा,
छोड़ अपना घर, ओसारा,
दूर तक फैला हुआ वो...
बन बगीचा संग दीवारा,
भाग आया शहर में, आ समाया शहर में।
क्या मैं गलत था?
तेरे लिए मै मतलबी था..!
इसलिए तूं साथ मेरा छोड़ कर
चमचम चमकती झलकती इन शाम के
मदहोश साए में सिमटकर
साथ मेरा छोड़कर
अब साथ है इन जुगनुओं के
तरल होकर बह रही है, ढल रही है,
प्यालों के संग, इन बेवजह ही
मुस्कुराती शाम में।
ढुलक रही, लुढ़क रही तूं देखता हूँ..
इन धुनों पर, इन धुओं में
बेसुध पड़ी है, रातभर...
दूर मुझसे... हो गई है।
अरे! क्या तूं इस तरह से... बहक गई है।
भाव: आगे बढ़ने, उन्नत होने की चाह, कुछ अलग करने की चाहत, लोगो को शहरी संस्कृति और परिवेश में खींच लाई है। पर यहां क्या है मिले तो कुआदते न मिले तो जिल्लत की जिंदगी। और अपना गांव वाला मै तो अब इस जिंदगी से ऊब गया है। यहां के हालात से निष्ठुर हो गया है। यहां बच्चों के हाल, संस्कृति और जमाने की नस ही कुछ और है। जीवन उद्देश्य ही भूल गया है। स्वार्थ में पागल है।
बहकी नजर, तेरी मगर, जब देखता हूँ
मैं देख पाया ही नहीं, तुझको अभी,
पूरी तरह, मै सोचता हूं।
मोड पर इस, पहुंच कर
तेरी छलांगे देखकर खनकाह हूं
अपने ही भीतर, सलवटें ये देखकर
इतनी घनी, मैं क्या कहूं,
बुझ रहा हूँ,
आ तुझे मैं प्यार फिर से कर रहा हूँ।
पास आ, चल खेल फिर से
कूद नदिया में उसी,
डाली पे चढ़ उस पेड़ की
तैर चल उस पार,
पार कर ये धार..
मज़धार जो यह बह रही है...
आ लिपट मेरे साथ, चल फिर
केलि कर...
स्वप्न है सब,
सोच मत अब
चल दूर हो नजरों से अब,
छोड़ मुझको, हो अलग
जिस्मों अदब का ख्याल रख।
जा कूद, भर, सिकता ए कण
तूं अंचलों में, झर निझर,
फूल बन कर महक अब,
ऐ जिंदगी है
मैं तुझसे अलग! मैं आत्मरस!
तुझ नटखटी के पार हूं अब!
पैरों में रह सिर पे न चढ़!
जय प्रकाश मिश्र
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