वह गीत गा गा, भूल जाती है सभी कुछ
भावभूमि: मां इस संसार में मूल शक्ति ही नहीं उत्पत्ति का आधार है। संसार के शाश्वत गतिशीलता के पीछे मातृशक्ति है जो सदैव इसे अपने रक्त और अंश से आकार और रूप देती है। मां के सभी रूप सभी को सदैव वंदनीय है।
मां से बना,
संसार सारा है यहां
दीखता.... मुझको जहां तक...
सकल जग.. फैला जहां तक,
आदि से ले.. आज तक…
आगे भी रहेगा..
जिस समय तक
सृष्टि का यह क्रम चलेगा।
देखते हम आ रहे हैं,
जन्म लेते जा रहे हैं,
कौन पैदा यूं करेगा, सोच इसको!
सामर्थ्य इतनी, आप में, किसी और में,
संभव नहीं है,
कौन है वह! धैर्य इतना,
इस तरह, धारण करेगा।
कौन है! वह
इस तरह… तर्पण करेगा,
सर्वस्व अपना… रात दिन…
निज स्वांस को, निज रक्त को..
निज स्वास्थ्य को,
पेट पर, रख रातदिन
शिशुभार यह
इस तरह खुश रह सकेगा?
बोल! कोई है जहां में…
मां है वो
बस, मां ही, है वो।
भूल जाती है, तुझे ले गोद में
आनंद से
वो… फूल जाती है, खुशी में
ना समाती..आप में,
गीत गा गा
भूल जाती, आज को
हर शपथ को, हर बात को
देखती तुझको भरम में
झूम जाती है जो ऐसे
मां है तेरी, मां है तेरी।
और होगा कौन ऐसा, सोचना,
मुझको बताना।
जाने न कितने ख्वाब
बुन बन देखती है
नयन तेरे,
चूमती है अधर तेरे, नाचती है,
मगन मन में।
संसार के सब शूल सहकर
मुस्कुराती है जगत में।
तेरे ही बल पर ऐंठती है,
हर किसी से
मन में लिए हर ताप
चुप हो बैठती है,
इंतजारी में तेरे, वो काटती है
हर अंधेरा आज का,
दुख आज का
एक दिन, तूं.... बड़ा होगा
एक दिन, उसका भी, होगा
रानी बनेगी, सोचती है
तेरे बल पर रूठती, रन ठानती है
मुस्कुरा पट खोलती है
देखती है मुंह तेरा,
विश्वास भर वह, बैठती है।
काल से लड़ती हुई,
तेरे लिए
जग जीतती है।
इसलिए मैं कह रहा हूँ
चरण छू नित पूज उसको
देवि है इस जगत की,
साक्षात् वह तो।
मां है वह तो।
जय प्रकाश मिश्र
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