तल है वह,आनत हुआ है तली में,
भावभूमि: नदियां हमारी मां ही हैं यह सुंदर, साफ और अविरल बहें यह सबकी जिम्मेवारी है। यह हमे पीने का जल, अन्न के लिए सिंचाई, पर्यावरण के लिए अमृत सा कार्य करतीं हैं। फिर भी हम इन्हें गंदा करते हैं यह महापाप है। इन्हीं पर कुछ लाइने हैं, पढ़ें और आनंद ले।
नदी थी वह,बह रही थी,
धार में अपनी,सहज थी,
बीच में उस"मौज" के
मज़धार में यह चुलबुली,
असहज मुझको लग रही थी,
लेकिन वो आगे बढ़ रही थी।
शीतल, सुखद थी,
सु-कुमार छोटी,बालिका सी,
तरलिका वह....पेंग भर-भर
उर्मियों संग
अरुण की उन सुनहरी
लय विलय होती,अप्रतिम प्रभा में
आरोह पाकर चढ़ रही,
अवरोह लेकर उतरती थी।
खेलती,क्षण अनुक्षण
उछलती थी।
नित्य उसके पास बैठा
आंखमीचे देर से
अटकलों पर
चढ़ता,उतरता,सोचता था;
कौन सी वह शक्ति है,
इतनी विपुल
इतनी विपुल जलराशि को,
इस नदी की...
अहर्निश चिर काल से ले
बह रहा है।
रुकता नहीं! दिखता नहीं!
पर काम अपना कर रहा है।
मैने कहा वह छुपा है..
गहराइयों में..नदी की..
चुपचाप है, मौन हो बैठा हुआ
हिलता नहीं है,
स्थिति बन आज तक
वैसे वहीं बैठा हुआ है।
तल है वह,आनत हुआ है,
प्रेम से,प्यार से,
करुणा लपेटे
आज भी नीचे पड़ा है।
वही तो,ले भार, इस सम्भार का
जलराशि का,
पोषण सकल संसार का
देख कैसे चुप बना,
गंदगी इस मनुज की,
मुंह पर लिए,
इस सभ्यता में
अन्याय कितना सह रहा है।
अन्याय कितना सह रहा है।
जय प्रकाश मिश्र
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