मैं तैरता आकाश में।
गणतंत्र दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं।
भाव भूमि परिचय:
ध्यान एक ऐसी क्रिया है जिसमें हम ध्यान वस्तु के साथ घुल जाते हैं उसी में मिल स्वयं विस्मृत हो लय हो, आनंदित होते है। अपनी संवेदना पूरी समष्टि, पृथ्वी से एकाकार हो जाती है। जागरूकता से ओतप्रोत होते हैं
ध्यान में
हम "वही" होते हैं
"वहीं" होते है, खोए नहीं
यह मही* होते है। संसार*
होश में होते नहीं,
होश के ही बने होते हैं।
ध्यान में इस, मैं नहीं,
शरीर भी नहीं...
ईथर हुआ मै.... घूमता हूं
हवा में मैं फिर... रहा हूं
देखता सबकुछ यहां... जहां में
मैं फिर रहा हूं।
शांत हूं, मैं हूं नहीं,
क्रोध कैसे मैं करूं....
पास रख सकता नहीं
रहा मेरा कुछ नहीं....
मुक्त हूं परछाइयों से... मुक्त हूं
तुम कहोगे कल्पना मेरी है ये...
मैं सच यही तो जी... रहा हूं।
दूर हूँ अस्तित्व से, दूर हूँ हर राग से
शरीर से मैं विहीन हूं,
क्या करूं बस देखता हूँ
तुम सभी को, पास से
कितने ...... हो गए हैं...
राज सबके पा.... रहा हूं
उड़ रहा गहराइयों... में बादलों के
नदी के मैं बीच हूं।
पंछियों की समस्याएं सुन रहा हूं
बात उनसे कर रहा हूं
शब्द उनके समझता...
हृदय उनके पैठता हूं।
छोड़ कर सारे शिकंजे....
डूब कर विश्वास... में
कूद कर आकाश... में
तब यहां पहुंचा... हूं मैं।
छोड़ आया हूं वहीं मैं
पास तेरे आप... को
एक कण पर बैठ कर मैं
तैरता आकाश में।
छोड़ कर हर आदतें
छोड़ अपनी दक्षता...
छोड़ कर भाषा विचारों
को यहां आया हूं मैं।
पत्तियों सी झड़ गईं
चाहत मेरी, मेरे पास से...
और छोटा हो गया
हर नोड के आकार से....
भूल कर इस विश्व को
हर काम को, हर रास्ते को
मैं अचानक आ गया हूं
आह कैसे..... मुकाम पे।
एक चिड़िया फुदकती थी
मन बनी, मेरा घूमती... थी
दाने चुगे वो, ना चुगे...
पर ले मुझे वो, घूमती... थी
विश्व के बाजार में।
कैसा गजब
रख लिया है पकड़ जब
शांति है तब से अजब।
रास्ता कहने को था
रास्ता ही था, नहीं
पलटना सिक्का था मुझको
एक क्षण का मार्ग था..।
मैं वहीं था, खड़ा तब भी
मैं वहीं हूं खड़ा अब भी
दूरियां थीं मन की सारी
और सोचते ही खत्म थीं।
अरे! बस
छोड़ने की बात थी
उतारना कपड़ा हो जैसे
सहजता से, मुक्त हो हर लाज से
धो बहाना मैल हो यूं,
बह रही नदिया में जैसे
बेझिझक जिसने उतारा
और कूदा... नदी में
परदा गिरा..., एक टूट कर...
सामने दिखने लगा...
पार जैसे हो गए सब, पार मैं भी हो गया।
भाव: परिवर्तन मन की विश्वासपूर्ण सोच मात्र ही है। संसार इसी से आपके लिए बदल जाता है।
जय प्रकाश मिश्र
पग दो, दृश्य एक
वह ठीक सीधा, चढ़ रहा था
अति परिश्रम, कर रहा था
दूर तक वह चढ़ गया था
बहुत खुश था,
नजदीक था वह, पावना* के, लक्ष्य*
यह अचानक क्या हुआ
वह गिर गया, बेलौस नीचे
बेहोश हो, चितशून्य हो,
शून्य मन.. वह हो गया।
आप ही में खो गया..।
दृश्य दो
एक झील थी,
क्या खूब थी
हवा के संग खेलती थी
लहरियां उठतीं थीं गिरतीं
कलोल करती झूमती थी।
पृष्ठ पर उस झील के
एक झोंका शीत का
ऐसा है गुजरा
पार्श्व से वह जम गई,
हिम हुई, पत्थर बनी,
हिलती नहीं अब हवा से
चमकती दर्पण हुई।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: अचानक विचारों में परिवर्तन या भौतिक स्थितियों में परिवर्तन अनपेक्षित हमे मूल रूप से बदल देता है हमारा दृष्टिकोण अपोजिट हो जाता है यही संसार है।
दृश्य एक
पहचान उसकी वही थी
जो बाहरी थी
आंतरिक सब ढका था
कुछ कहां था दीखता,
रूप तो एक आवरण है
यथार्थ का।
पहने हुए जिसे घूमता है
वो यहां
लौटी हुई किरणों का भ्रम
संसार है,
जो वहां था, वो कहां था,
दीखता।
वास्तविक कुछ और था
कपड़ों के पीछे
हृदय था, करुणा भरा,
प्रेम छुल छुल छलकता
बह रहा था, अंतर में उसके
नेत्र थे पर कालिमा और लालिमा से
थे ढंके।
दृश्य दो
लज्जावनत वे होष्ठ थे,
अभिराम सुंदर कपोल थे
पर कुछ कहां था दिखता
अंदर जो उसके चल रहा था।
एक धारा गरल की
काली महा थी गरजती
बाहर सभी कुछ शांत था
यह विश्व था यह विश्व था।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: संसार की विशेषता उसकी रहस्यता ही है। जो भीतर छुपी होती है यह बाहर से अच्छी हो या गंदी एक सी ही दिखती है।
रूप क्या है
अभिव्यंजना है दीप्ति की
छवि निखरती, कढ़ती हुई
हर चीज की
लिपटती, चमकती
इस प्रभा में
दमकती अभिराम सुंदर हिल रही।
शांति से देखो इसे,
पुत्री है यह
प्रकाश की, प्रेम की, और स्नेह की।
वह खड़ा मेरे सामने, दर्पण बना था
रूप अपना, देख उसमे, मैं रुका था
हृदय दोनों.. एक से ही थे धड़कते
नेत्र दोनों एक से ही देखते थे।
अनुभूतियां सब एक थीं
पर वास्तविकता अलग थी।
जय प्रकाश मिश्र
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