घर क्या है?
भाव: वास्तविक घर, घर के भीतर होता है। यह ईंट पत्थर नहीं मानव और प्राणी होते हैं उनका स्वभाव और आनंद होता है जो उसमें रहता है न कि उसमें का वैभव और सुविधाएं घर होते हैं। जहां खुशियां उछलें, मस्ती झूमे, बच्चे किलकें आनंद झरे वहीं घर है। इन पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें।
क्या है घर?
क्या यही... ईंट, पत्थर...
चुने, सुंदर?
या उसमें रखे आरामदेह,
चम चम करते, शानदार फर्नीचर...!
ये लहरदार लहराते
झिलमिल पर्दे,
या लटकते, रंग बिखेरते
जलते दियों संग, लुकते छिपते
फानूस, टंगे ऊपर.. !
मेहराबें... हंसती आंखों सी
मदराती
मौन बुलाती , चुप रह रह, अंदर!
आखिर! क्या है ये घर ?
क्या यही.. सुंदर ईंट या चुने पत्थर...!
या जज्बात
जो गर्मजोशी से मिलें,
जहां, तुम्हें आकर!
वहां,
वहीं कहीं भी,
खुद ही, बाहर, भीतर
हरबार... मुस्कुरा-मुस्कुरा
मुस्कुराकर!
सोचें! क्या यही
अन्नमय भौतिक घर
जो दिखता है, मुझमें...
आपमें, सबमें.., परिधान पहने...
सवेरे सा.. मधुमय किन्नर.. किन्नर..
क्या यही है हम सबका घर ?
क्या यही..जो दिखते हैं
ईंट, पत्थर... चुने, सुंदर पत्थर?
या प्राणमय, मनोमय
उछलता..
खुश और खुशियां बिखेरता
उकेरता छवियां, अंतर.. प्रांतर..
या और आगे
विज्ञानमय और आनंदमय घर
जो जगा दे पुलक,
भर से प्रकाश चहुंओर भीतर बाहर।
क्या यही है घर?
क्या यही ईंट, पत्थर... चुने, सुंदर?
या नृत्य करे .. जिस घर...
आनंद... रसधर,
भरभर-कर,
झरझरा-कर, झरे-निर्झर...,
मन हृदय के विशुद्ध पटल ऊपर..
कौन सा घर है अपना घर..
क्या यही ईंट, पत्थर... चुने, सुंदर?
कुछ तो बताओ, भाई मेरे!
कभी घर अपने, बुलाओ भाई मेरे!
नहीं तो मेरे ही
किसी घर, कभी तो आओ भाई मेरे।
चलें इस घर को और अच्छा बनाएं
भाई मेरे...
कुछ पढ़ कर..., कुछ लिखकर...
यह भी तो है, अपना घर।
आखिर घर क्या है?
क्या यही चुने, लिखे, भेजे, शब्द, सुंदर?
जयप्रकाश मिश्र
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