सोचता हूं सादगी का रंग कोई, ओढ लूं!
मनो भावभूमि: जीवन अजीब है, मीठा तो दूर की बात है, किसी किसी को तो फीका भी नहीं रहने देता, रस ही छीन लेता है। अनुभव और स्मृतियां इसके रास्तों को अपने अनुसार वक्त के साथ बदलती रहती हैं। सूखे पत्ते सा यह बहता है, हवा में उड़ता है, पर कल्पनाओं में खेलता है। लालसा और इच्छाएं वय बाधित हैं शीर्ष की स्थिति प्राप्त होने पर स्वतः भाग जाती हैं। जो पाता है मन से लेता नहीं और जो भागता है उसी पर तुलता है।इन्हीं पर यह कविता लिखी है, थोड़ा लंबी है पर आनंद अंत में आएगा जरूर और आप पढ़ें और आनंद लें यही मेरा पुरस्कार होगा। निराश नहीं करूंगा।
सोचता हूं घोल लूं
हल्का सा.. मीठा,
थोड़ा... फीका
स्वाद कोई इस जुबां पर,
अल-सुबह! मैं आज इसपर।
मैं ओढ लूं,
सादगी का रंग कोई
रंग ले, जो... झांकती हो
हरित आभामय प्रकृति का..
खेस कोई.., बादलों सा..
ओढ लूं।
सोचता हूं घोल लूं,
हल्का सा.. मीठा,
थोड़ा... फीका, स्वाद कोई
इस जुबां पर।
अल-सुबह! मैं आज इसपर।
जोड़ लूं एक रस नवेला
स्मृति में ललछुआं
अमरूद का इस,
इसलिए
क्या तोड़ लूं?
अमरूद ताजा झूलता यह!
टहनियों में, लग रहा...
रामकृष्णी* सी ये तृष्णा
खींचती है
पास मुझको, अमरूद की,
इस हृदय... तक, लर्चित
मनों तक
आभार इसका मानता हूं,
इसलिए मैं..
सोचता हूं घोल लूं,
हल्का सा.. मीठा,
थोड़ा... फीका स्वाद कोई,
इस जुबां पर।
रामकृष्णी लालसा* स्वामी रामकृष्ण मृत्यु से क्षण मात्र पूर्व एक अमरूद जो वहीं उनके पास अधपका पीला लटका हुआ था खाने की इच्छा किए और उसी में कीट बने आगे और कथा अलग है।
बुलाता है दूर से यह,
"अधपका"
महकता, हिलडुल उचकता,
झांकता है।
क्या तोड़ लूं मैं, एक,
मुस्कुराता!
लटकता! अनुपम मनोहर
कुरकुरा सा, कुरमुरा, करकरा
थोड़ा मीठाता, अभी छोटा,
हरा-पिला, हिलकता
अमरूद! क्या मै तोड़ लूं।
सोचता हूं घोल लूं,
हल्का सा.. मीठा,
थोड़ा... फीका, स्वाद कोई,
इस जुबां पर घोल लूं ।
यह हिल रहा,
आडोलता, स्पर्श करता
नन्हीं चुटुल किसी धौतरी * के
स्वर्ण-रक्तिम, सुनहले लटके,
कुंडल सा
ललछुहीं इन पत्तियों के बीच
देखो, गुघड़ चिकनी, पुष्ट
डाली बीच
लचकती उस ओर जाती..
ठोस
सरला सुगढ़ की पिंडली.. हो
श्वेत
आरक्त रक्तिम, स्निग्ध, सुंदर,
सुनहला,
इस कपोलना* को
बीच से इन डालियों के
तोड़ लूं.. सोचता हूं घोल लूं
हल्का सा.. मीठा,
थोड़ा... फीका
स्वाद कोई इस जुबां पर।
चल अब, तोड़ लूं,
अमरूद को इस...
मैं बढ़ाकर हाथ अपने...
बस थोड़ा ऊंचे...,
पा गया हूं...
पर देख तो! ललछुही इन
पत्तियों में
मस्त कैसा छिप रहा है,
पर अरे! जुडवां है ये,
क्या बात है,
एक साथ है ये,
प्यार से इतने अधिक
लग रहा, प्यार की सौगात हैं ये।
हाय! कैसे तोड़ लूं ...
क्या तोड़ लूं.. सोचता हूं
घोल लूं
हल्का सा.. मीठा, थोड़ा...
फीका
स्वाद कोई इस जुबां पर
घोल लूं।
चेतना...
मेरी बहकती जा रही है
देख इनको, यहां के इस हाल में
स्मृति मेरी विगत में जा रही है।
हाथ वापस हो रहे हैं,
भाव ऊपर चढ़ रहे है...
याद कुछ कुछ आ रहा है...
बीते दिनों की बात है..
काली अंधेरी रात थी..
जुडुवा जनम की बात थी
मां कह रही थी
इनको बचा लो , छोड़ मुझको..
"उलझे हुए शिशु इस तरह थे"
बात बनती थी नहीं
जोर देकर जब निकाला
एक को, दूसरे की
सच कह रहा हूं...
बांह उखड़ी...
चीखता वह मर गया..
मां विवश बेसुध हुई...
उस "सूखती डाली*" को देखा
हाय जबसे...
आज तक, मैं विलग हूँ
आत्म से सन्यस्त हूँ ।
आज तक उस रात से
जीवन है फीका, और फीका
स्वाद मै हूँ खोजता
क्या इसलिए मैं तोड़ लूं
हाय! कैसे तोड़ लूं ...
क्या तोड़ लूं..
सोचता हूं घोल लूं
हल्का सा.. मीठा, थोड़ा...
फीका
स्वाद कोई इस जुबां पर
घोल लूं।
छोड़ता हूं बात अपनी
मैं तुम्हीं पर
तुम ही बताओ क्या
तोड़ लूं, या छोड़ दूं
जुड़वां लटकते प्रेम से इन
अमरूद को
सोचता हूं, तोड़ / छोड़......दूं।
जय प्रकाश मिश्र
भाव: अब एक को भी आगे तोड़ने का मन नहीं होता डर ये भी कि डाली कहीं तोड़ने में सुख न जाय पिछली बार की तरह। जीवन संवेदना का खेल है।
धौतरी* बिल्कुल गोरी, तुषार सी रंग वाली।
कपोलना* सुंदर कपोलों वाला बच्चे के कपोलों सा ललछुआं
सूखती डाली* नर्वस मां, उदास, गतिहीन शरीर
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