जिसपर तू फिदा फिदा सा है।
भाव पक्ष: समय कोई भी हो संसार दो रूपों में सदा से उपस्थित रहता है। पहला भौतिक दृश्य पक्ष, लौकिक और दूसरा आंतरिक, आत्म पक्ष या पारलौकिक। पहला सुंदर है प्रकृति का भाग है लुभावना है पर एक छलावा भी है। यह माया अर्थात मा यानी नहीं और या यानी 'जो' अतः जो दीखता है वह नहीं है। यह बाह्य जो दिख रहा है वह नहीं है बदलने वाला है। अतः चेतना के लिए त्याज्य है। भौतिकता छोड़ो तो शांति और स्थिरता मिल सकेगी। इसी पर कुछ शब्द हैं आनंद लें। एक पिता पुत्र से कहता है पुत्र बच्चा है सौंदर्य विमोहित है रंग रूप में बिंध गया है अतः पिता पूछता है कि .... इस लड़की के आत्म से तूं प्रभावित है या बाह्य सौंदर्य पर और उसे समझाता है आगे खुद पढ़ें।
इन कपड़ों पे है तू राजी,
या राजी इन रंगों पर।
तुझको शर्म नहीं आती है,
आंखो के इन चश्मों पर।
रंग, अंग का छुपा हुआ है,
अंगराग* के रंगों में,
होठ रसीले, कहां दीखते
चम चम पॉलिश के भीतर।
रंगी हुई, रंगीन, गुलाबों
सी दिखती, ये, सुंदर रंगत,
कुछ ही दिन की बात है।
फिर तो दिल तेरा ढूंढेगा,
जिसकी तुझको चाह है।
यह उपवन की नई कली,
जिसपर तू फिदा फिदा सा है।
यह रूपराशि का नकली वैभव,
इससे मकरंद*... जुदा सा.. है।
जीवन में रंगों से बढ़कर..
इन बुने लबादों से हटकर..
उन सलज* अंकुरों को छूकर
अन्तस की दुनियां में आओ।
है जीवन का उत्सर्ग यहां,
है आत्मसमर्पण भाव यहां।
है अविचल प्रेम की धार यहां,
है मर मिटने की चाह यहां।
इन कुटिल लकीरों* को छोड़ो
यह छाया उर्मिल* रंग छोड़ो।
यह लेपित* काया भ्रम छोड़ो,
इस अंगराग का क्रम तोड़ो।
आओ तुम बदल वीथिका* को
इन सहज सरल श्यामल कोमल,
जंह तनप्रभा... दमकती निश्चल
निश्छल अभिराम नयन लेकर।
रस अधर, हंसी उज्ज्वल देखो।
इन रंगी फुनगियों में क्या है,
इन रंगी जुल्फियों में क्या है।
इन कटी भृकुटियों* में क्या है,
भ्रम के भीतर, भ्रम में क्या है।
जय प्रकाश मिश्र
अंगराग*: पाउडर पुता अंग
मकरंद*: असलियत, मूल-महक
सलज*: जीवंत, प्राणमय
कुटिल लकीरों*: बनावटी, धोखेवाली
छाया उर्मिल*: क्षण में बदलता सौंदर्य
लेपित* काया: छलावा, धोखा
कटी भृकुटियों*: बनावटी, क्षणिक
बदल वीथिका*: दृष्टिकोण बदलो
शीर्षक: उषा
भोर है यह..
भावनाएं मधुर हैं
मधुर हैं, शीतल हवाएं मधुर हैं,
मधुर है किरणें अरुण की भोर में
मधुर है यह विश्व अपना भोर में।
आ चलें,
सुमिरन करें, उन शक्तियों का
सत्व की रक्षक हैं जो संसार में,
देव का देवत्व जिनमें है भरा
प्रात की देवी हैं जो,
चिर काल से।
देख तो
मलयानिली, चंदन सुरभि
ले आ गई वो…
पंखुरी स्पर्श करती…
कलियां खिलाती
आ गई वो…
रंग सिंदूरी लिए..
मंद मलयानिल लिए
इस धरा पर है, छा गई वो।
आह! कैसे झूमते हैं वृक्ष,
होकर खुश यहां
स्वागत में कैसे उमड़तीं हैं
पुष्प ऊपर तितलियाँ।
आ मिलें..
इस शक्ति का स्वागत करें,
प्रेम का यह रूप है,
करुणामयी है,
आदि से
जग की नियंता शक्ति यह,
मां है अपनी
रूप तो पहचान रे!
आभामयी उषा है ये।
यह वेद वर्णित देवि है, चिर काल से।
भोर है यह..
भावनाएं मधुर हैं
मधुर हैं, शीतल हवाएं मधुर हैं ।
जय प्रकाश मिश्र
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