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Showing posts from December, 2024

नव वर्ष

नया साल....   आने को है..  आज ...  आधी रात को,  सुना है मैने... खुश होकर उसने...  काले.., नीले.. ऊपर तने..,  वितान तले..  नभ पर..नीचे,  सजाए हैं, अनगिनत  टिमटिमाते, तारों..के,  अद्भुत... दिए। चांद! अभी शाम  "पहर" पहले,  पौष शुक्लप्रतिपदा का,  कदम रख,  धीमे-धीमे  नेपथ्य लौटा है,  आज की व्यवस्था देख... । पौष की ठिठुरती.. शीत भरी.. रात्रि अभी और लंबी होगी,  मुझसे कहकर गया है, पर उजाले... बढ़ेंगे जरूर आगे...  साल के साथ साथ चलते चलते  इशारे भी, करके गया है। उम्मीद से हूं, आशावादी भी हूं... सबको सद्बुद्धि दें "वे" सभी मिलजुल अच्छे से रहें,  आगे बढ़ें,  नए साल में नई उमंग मन में भरें.. प्रायश्चित और पश्चाताप से बचें.. हर जीवन, मन, हृदय को समझें.. युद्ध से बचें,  हर मानव भाई है, सभी सोचें। व्यवसाय सेवा है, इसको स्थान दें.. हमारी क्षमताएं गिफ्टेड हैं,  इनका दुरुपयोग न करें जीवन में शील, संयम, शांति, मैत्री  और सम्यकता  धारण करें। जय प्रकाश मिश्र आज की कविता जाने न कि...

कुछ फूल हैं, मैने बनाए..

कुछ फूल हैं...  मैने बनाए...,  तमन्ना.... दिल में संजोकर..  प्यार से...,  इन कागजों… पर, .,  तेरे लिए, बस! तेरे लिए। आवाज भर कर भीतरी...  तूं! सुन सके,  सूंघ कर,  इनके परों की..महक को,  देखकर इनको...  मुझे तूं मिल सके,,, नजदीक... से हर, दूरियों को मेट कर,  अंदर हों बाहर, मन, हृदय में। सामर्थ्य!  मेरी?  बहुत, कम… है, एक जर्रा.. मै बनाऊं!   सोच से बाहर है मेरे... ! सच सुना है आपने, यह... मैं भी...., यही तो... कह रहा हूं,  महक उनकी…  आपको अच्छी लगी…  ये करिश्मा! … मेरा नहीं है, उसी का है,  जो छुपा.. है आपमें, मुझमें कही पर...। जानते है आप,  ये सब!  पर, न-जाने  क्यूं,  ब्रदर..  साफ कहते ही नहीं हैं, कभी मुझसे। जय प्रकाश मिश्र भाव: रचनाकार पाठक के लिए अपनी पराकाष्ठा की सीमा तक ही सुंदर, रसभरी, भावपूर्ण शब्द रचना.. "पुष्प रंगीला" बना कर सुरभित कर ही प्रेषित करता है, जो पाठक तक पहुंच कर अपनी बात उसको सुना दे। पर.. यह शक्ति.. उसकी नहीं पाठक में निहित होती है। यदि वह रचनाकार अप...

मनुष्यता का धर्म।

किसने बनाया, क्यों बनाया शब्द यह,  उपजा कहां से... कारण बना है,  आदमी को बांटने का,  जब से जहां से  इस जहां को.. देखता हूं मैं!  अलहिदा  सब  रंग ले, ले अलग हैं,  एक दूसरे से,  सारे के सारे,  नील…कोई,  हरा कोई... भगवा है…. कोई, श्वेत है..। जाने न क्यूं हैं रंग, इतने,  इतर सबके.. पर! काम इनका एक.. है,  नेक… है..  कहते सदा से…, आज भी,  अब भी यही, मैं सोचकर हैरान हूं। सारे झगड़े और रगड़े  बड़े… जो हैं,  जहां में जिंदगी की नाप.. से,  इस आदमी के..  आज भी.. केवल यही.. हैं, बस यही.. हैं  आज जग में देखकर  अचंभित हूं, दुखी हूं, ....... हूं। क्या अलग हो..  आज ही... आदमी की जिंदगी से...  शब्द यह,  अब जरूरत... इसकी नहीं है  आदमी को.. और आगे आज की दुनियां सबल… है।  पूर्व की उस… स्थिति से…,  जब बना था शब्द… यह.. इस.. विश्व में,  रक्षार्थ उनके क्षेत्र में, उस काल में। क्या चुक गया..  पानी... था इसका... मृदु.. मधुर.. जो  आत्मा.. था, सरस.. था,  वास्तवि...

जीवन अनुभव विधि

 नव जीवन अनुभव विधि मानव अपने हर अंग में अपने को  नवकोपलों की तरह फ्रेश व  उल्लसित अनुभव कर सकता है।  वह एक साथ अपने को शरीर के हर हिस्से में जैसे  अस्थियों,  नर्व, सतह या सर्फेस पर,  कोशिकाओ, मन, चित व  चक्रो के स्थल पर अपनी  उपस्थिति महसूस कर सकता है। 1 सुखासन में बैठें 2 शांत हो  3. स्थिर सम स्वांस का अभ्यास करें। 3 जब स्वांस में स्थिरता व स्वाभाविक  समता पूर्ण लयता आ जाए तो  4. मानसिक प्रयास व आभास करें कि  आप की स्वांस पैर की अस्थियों ली जा रही है। 5. यही क्रम हाथ, सिर, चेस्ट, पेट की अस्थियों  व अन्यान्य अंगों में महसूस करे,  6. स्वांस व प्राण आपके जनन अंगों, व रीढ़ से  होकर बह रहे है।  7. शरीर के हर पोरों से प्राण छोटी छोटी लहरों  से खिल खिला रहे है।  8. इन प्राण तरंगों को ललाट, सिर के नीचे,  मष्तिष्क में, नस नाड़ियों, अंगों,  सभी चक्रों पर अनुभव करें।  9. अभ्यास का अंत नख सिख के बीच  कई बार इसका प्रभाव महसूस कर करें। याद रखे कि पुष्प का प्रमुख कार्य पूर्ण धैर्य से ऐसा ...

प्रार्थना: हे शारदे, वर दे!

मां शारदे! वर दे.. अनगढ़ हृदयों की भाषा का  सुंदर सुगढ….  शिल्पकार कर दे…., वर दे! मां शारदे! वर दे…। नंदनवन.. अप्रतिम अनुपम… शीतलतम.. शब्दपुष्प मेरे… अपने चरणों में..  रखने दे..., वर दे! मां शारदे वर दे…। मै अज्ञानी जन…,  रख पाऊं दीप… प्रथम.. महिमा मंदिर… तेरे अंतर्तम..  ऐसा साहस मुझमें… भर दे, वर दे! मां शारदे! वर दे….। जय प्रकाश मिश्र पुष्प द्वितीय: नियति नटी यह!  नटी है,  नित नवल है, यह!  हर प्रात की है लालिमा.... प्रेम की मदिरा मचलती, परात्परा है.... प्राण की आधार है... यह प्रणयनी है। निष्कलुष है, कली है, यह!   परिधान पहने ज्ञान का देख कैसे खड़ी है,  नटी है यह, नित नवल है!  खड़ी है..  संज्ञान,  बन कर हृदय में मान है यह!  आ चलें उस ओर…  जहां, वह बह… रही है.. कल कल निनादित हो रही है..  नर्तकी.. वह नर्तनी.. फुफकारती… देख कैसे..! लहर बन बन..! तन रही है। नटी है यह, नित नवल है  !  हर प्रात की है लालिमा.... प्रेम की मदिरा मचलती, परात्परा है.... प्राण की आधार है....यह  नियति है। यह...

आंचल से कोई झांकता है, बाल शिशु हो..

  मैने,  देखे है ’पग’ ना जाने कितने आजतक पड रहे थे ’जमीं’ पर वे पर ’अलग थे’,  हर एक,  वे  ’एक’ दूसरे से। हर एक पग की  चाल में  अन्तस.. छिपा था अध्याय था, पूरा छिपा..!  सच कह रहा हूं मान लो,  यदि, नहीं तो,  खुद ही आकर सुलभ हो,  जब निज दृष्टि से तुम देख लो। वह!  एक था  वह कौन था मैं जानता तो   नहीं था पर मुझे, निज चाल से वह कोई. महीपति, अधीपति सा  लग रहा था, वह चल रहा था.. सामने कुछ इस तरह गजराज.. हो, मद में भरा..  छीनता इस भूमि को..  वो.. बढ़ रहा था..।  भूमि पर जिस चल रहा था विजित करता…,  नाम अपने,  कर रहा हर एक पग को,  रख रहा था। अर्जना का भाव लेकर  खींचता था,  भूमि को निज  पास  अपने,  भूमि कोई  वस्तु हो..  कुछ इस तरह, हर कदम  पर.. कदम अपना रख रहा था। लग  रहा था,  बंध रहा हो,  हर एक पग से आज वह, कल के लिए,  जोड़ता उस भूमि को,  छत्र अपने, ही तले। देखता पीछे बड़े ही ध्यान से  मोह में बंधता हुआ सा चल रहा था, मैं ...

एक फ़र्ज़ है. ..

एक... फ़र्ज़ है, पूरा करना होगा,  बिना किए रहा भी....नहीं जाता, करूं.. क्या?  कहा... भी तो....  नहीं जाता। लेकिन.. कहूंगा,  चुप ... न रहूंगा। लिखूंगा.. बिना लिखे  रह  न  सकूंगा। कुछ खास तो नहीं होगा.. .  ,  ये जानता.. हूं, पीछे वाले.. मुझे भी  सुना गए.. थे.. मैं... कहां मानता हूं। पड़ा रहेगा, कुछ दिन  कहीं...   कोने में,  धीमे.. धीमे... कूड़ा मान.. विसर्जन होगा,  एक दिन, पक्का इसका। चल.. कोई बात नहीं.. शायद, कभी  इस कागज पर चटनी रख मूंगफली खाता.. बतियाता,  निराश, हारा बेजार कोई, दुखी  लड़का,  मेरे लिखे, कागज को  झटके में, यूं ही, पढ़ ले..  जी हां बस मूंगफली... खाते, छिलते..। और बदल ले..  अपना पुराना रस्ता ,  जीत जाए, बदलने से जिंदगी.. अपनी  सच्ची राह पकड़ ले...। तब...  मैं जीत.... जाऊंगा हां हां! हारते.. हारते...!  मैं.. जीत जाऊंगा,  उतनी... दूर, जाके. आखिरी बार कूड़े...  में सडने से  पहले।  कूड़े की भी यात्रा करके.. । चलो...  यही सोचकर.. ...

कितना ऊपर आए हो या नीचे, ध्यान से देखना।

मैं बेखबर था!  जिसके ऊपर!  चढ़ रहा था!  पता ही नहीं था... समूचा पहाड़,  नीचे..  सरक रहा था!  पर मैं,  मैं…रातों दिन.. पूरी शिद्दत से, मेहनत करता ऊपर और ऊपर ही  चढ़ रहा था। निसान-ए-पोजीशन, लगाता, दृढ़ होता .. उसी, नीचे.. सरकते  पहाड़ पर,  अपनी समझ से  ऊपर ही सरक रहा था। आगे, और आगे..  खुश होता, बढ़ रहा था। अपनी उपलब्धियों पर नाज़ था! मुझे.. मैं बहुत खुश था!  चढ़ आया कितना ऊपर!  मुस्कुराता था। मलाल! तो था.., पर  बस, इतना यही था..  लोग... जो दूर, अभी  जमीं.. पर थे, मेरी तरह...  क्यों नही.... तेजी से आगे बढ़ रहे थे। वो तो बाद में पता चला सारे लोग, सरकते पहाड़, और  मुझे  उपर चढ़ता देख... दूर नीचे से...  मुझपर... हंस.. रहे थे। बात तो सच थी... वो अपने... शाश्वत मूल्यों, आदर्शों चाल-चलन, रहन-सहन... से आज तक वैसे ही  चिपके हुए थे। मैं हर दिन सोचता था तब, बस! अब पार कर लूंगा ये सब.. पर पहाड़... नीचे सरकता गया... ज्यादा....उससे ज्यादा,  वो नीचे गया..   जितना मैं, सारा हाथ पै...

पूरा कर चुके थे, मकसद.वो अपना.बस अलविदा कहना था उनकी.

फुलझड़ी कविता शीर्षक: मौसम  कोई हमदम तो मिला    साथ चलने.. को मिला,      दूर तक.. न ही.. सही         बात करने.. को मिला।  चलो मौसम तो मिला,  यार.. कोई, तो.. मिला। कौन कहता है.. उसे    यार.. वो, प्यारा.. नहीं        मुझे लगता है... सुनो           सबसे... प्यारा है वही  चलो कोई यार मिला प्यार करने को मिला।  हाथ से.. छूता है मुझे       प्यार में.. कैसे..कहूं.              लाल हो जाते हैं चिबुक                 लाल.. टमाटर.. हों पके। सर्द.. मौसम है मिला,    यार है दिल का मिला।       कोई साथी तो मिला          चलो कहीं छांव तले। सद्यः रचित  जय प्रकाश मिश्र मुख्य कविता :  पूरा कर चुके थे, मकसद वो अपना!  उसका,  अपना... एक शौक... था सिगरेट के टोटे,  कंडील के बचे.. हिस्से,  आखिर में बची, फेंकी हुई...

प्यारी सुची 🥰 जीवन प्रक्रिया..

एक लड़की बड़ी भोली बहन थी रुशिका की वो🌸 हाथ गालों पर लगा कर🤚 सोचती थी...   जाने न क्या वो पर अभी वो  बारह भी दिन की थी नहीं  पैदा हुई थी जर्मनी के 🇩🇪 बर्लिन में वो। Rushika Mishra  class- 3 आज की कविता: जीवन प्रक्रिया.. वह नियंता बैठ कर  सब देखता  क्या कर रहा था?  इतना अंधेरा, घुप अंधेरा!   उसके लिए .. .. क्या.....अंधेरा था?  नहीं..... वह तो...  एक कुत्ता काल का..  काला लिए, पकड़ उसकी डोर  बस, चुप चुप खड़ा था। पर विकट था,  काल! यह विपुल वैभव विश्व का  सिर माथ पर लादे बंधा था। भाव: समय संसार में प्रमुख कारक है संसार की गति और परिणति के लिए वह ईश्वर के हाथ में पालतू कुत्ते सा दुम हिलाता अपने ऊपर इतनी जिम्मेदारी लिए उनके पास खड़ा रहता है। वहां सूर्य का यह प्रकाश नहीं मनुष्य के लिए गहन अंधेरा है, वहां ज्ञान का प्रकाश मात्र है। अपनो के लिए वह जगह गहन अंधेरी है। चमकते उस सूर्य को  खुद में समेटे, कालभैरव रूप था वीभत्स था!   वह क्रूरता से हाय!  कैसे हंस रहा था। काल के इस कालिमा के राज्य में क...

सात फेरों बाद के ये रंग

आग का,  वह रूप था..   जलता.. दिया रात... भर मैं, बैठ कर...  देखा.. किया.. सुबह धूमिल जो हुआ वो,  चांद.. था, ... अरुण आभा संग लिए यह प्राची दिशा सा...,  प्रात में भी...  लौ लिए, दिप-दिपाता... ही रहा। आज, देखा...  सुर्ख-ए-गुलाब...  की... सपनीली,  सुंदर.....  खिलती... - कली,  सच में अदभुत, मनहर थी..।   मधुर.. इठलाती,  उ- सांसे भरती.. हल्के, बहुत हल्के..   पहली बार.. अपने स्निग्ध तन पर पृष्ठ ऊपर.. आवरण.... पर. खोलती...,   संपुष्ट पुष्ठ, पृष्ठ.. ऊपर, मुक्त उडॉन की तमन्ना,  संजोए...,  प्यार भर भर.. अ खिल... खिलती  शिख..नख..  प्यार में.. सिलती हुई थी। जीवन की पहली,  स्नेहिल मुस्कान लिए.. अंदर से...उभरती, उठती..  नई... पहचान अपनी खोजती.. कस-कसे, सुष्ठु तन..,  प्रफुल्लित मन..। शीत.. की  अंधियारी..,  कंप..कंपाती..  निर्जन… मध्य-रात्रि, से अलग निडर..., बेखौफ छूने को...  निर्मल.... चांद!   इतनी…उतावली... अपनी दुनियां में...  कितनी मगन। जैसे.. हाथ...

जन्नत! तुझे दिखाऊंगा।

आओ मिलते है  एक बार  आज फिर उससे  शुखनवर बड़ा संजीदा है  बाहर निकला ही नहीं, आज तलक, मिला है जबसे। भाव: सेल्फ से मिलना, एक अद्भुत वाकया होता है। जो अपने भीतर छुपा बैठा है सदियों से बड़ी मुश्किल से उससे मुलाकात कभी मुश्किल के क्षणों में ही होती है। चलो आज उससे फिर एकांत में मिलते है। मै खुला हि... नहीं  गांठे... इतनी थीं, सिकुड़... भीतर ही  बहुत थोड़ा निकल... पाया हूं।  मत पूछ!   ये जगह भी कैसे बनी...  इच्छाओं को जला जला... अंदर  देख! अब कितनी, थोडी  जगह  अपनी बना पाया हूँ।  भाव: यह जीवन संसार में इतना ज्यादा मिलकर एकसार हो गया है कि हम अपने लिए एक क्षण भी निकाल नहीं पाते। इससे निकलने के लिए अपने अंदर की इच्छाओं को कम करना होगा। तब कहीं आत्म और आत्मन से मुलाकात संभव होगी। जिंदगी गुजार के  एक शमशीर बनाया उसने  बन गई शमशीर   प्यार धार पे आया इतना,  वार पहला ही  खुद पे आजमाया उसने।  भाव: जो चीजे आपको बहुत ज्यादा प्रिय होती हैं वहीं आपके लिए सबसे मजबूत बंधन भी होती हैं। और आपके जान की कीम...

चीजे सरल थी, अच्छी भी थी

चीजे सरल थी,       अच्छी... भी थी          धीमी तो.... थीं               पर.. स्व भाव के                  अनुकूल.... थीं                     काम के अनुरूप थीं। दिनोंदिन..    बहती... हुईं       जल धार.. सी.          कई स दियों बाद, वे            जीवन नद.. बनी                जीवन से सनी थीं। मदमस्त जीवन     लय.. ताल.. में       क्या बह.. रहा था ...          सभी चीजें.. जो भी थी             हर एक के.. प्रचलन में थीं।                पर, जो भी थीं.. वे सरल थी,                    सच कहूं... अच्छी भी थीं। अब क्या कहूं!...

इस प्रकृति को प्यार कर..

मैं प्रकृति हूं, मां हूं तेरी सखी तेरी, मित्र हूं शुक-सारिका हूं,  तारिकाएं, फूल कलियां,  नवल प्यारी अरुणिमा  मैं ही तो हूँ। घूमते,चलते हुए,  आकाश को इस बांटते चमकते… नक्षत्र सारे..,  चांद तारे.. कौन है  मेरे सिवा... हर ओर तेरे, देख तो...  तूं... ध्यान से, संज्ञान ले...  इस नियति का। इसलिए मैं कह रही हूं  आ..तूं मेरे, पास... आ।  मुझको समझ!   मैं दूर तुझसे  एक क्षण भी  हूं नहीं,  मैं मां हूँ तेरी  मां ही हूं तेरी. मिल.. गले..,  मैं, मां… बड़ी हूँ। आ कभी तूं घर हमारे, देख!  दीपक जल रहा है  घर पे मेरे… सुनहला,  वो, वो.. दूर आगे, क्षितिज ऊपर आधान… कर!  प्रणाम भी कर!  दिव्यता का रूप है यह..  अमर.. है,  जीवन  तेरा..है तेरे लिए वरदान है यह.. यह... सूर्य है। प्रातः में यह अरुण है, सविता भी है,  भानु है, यह याद रख। पर देवता है,  दे.. रहा है आदि से..  यह सृष्टि को, इसलिए..  तूं झुक... अभी..  प्रणाम कर.। यह पुत्र मेरा! प्रिय मुझे.. तेरे ही जैसा!...

आज की दुनियां पर रोना आया।

युद्ध और हम क्या इसमें भी  एक राय, नहीं हम! आज, रुक जाएगी, सच!  एक दिन रुक जाएगी नफरतों की बहती ये नफरती आग। जो जल रही है। बीच में कबसे, तक आज हमारे-तुम्हारे,  जाति, धर्म, देश और समाज। संप्रदाय, पंथ, के बीच  बोए अनगिनत बीज!  हां ये भी सच है,  अभी बाकी है खाक होने को बर्बाद होने को हमारा सुंदर भविष्य। हमारे बच्चों की जिंदगियां, हमारी आशाएं। कितना और शर्मिंदा होने को बचा है, महाभारत! जो महायुद्ध था उसके बाद जो हुआ  क्या कुछ और देखने को,  अन्यथा भी बचा था। हम भूल गए?  वो निर्धनता, निर्जनता,  वो चित्कारती शांति, अफसोस का रोष!  क्या वही सब,  फिर से दुनियां देखेगी... वही ध्वंश!  जीवन का कातर आर्तनाद! कितनी परीक्षा देगी मानवता? क्लेश, दुख, पीड़ा अभी कितनी बची है। जो नहीं निकल पाई है, अन्याय, अत्याचार, आक्रमण,  की इतनी हद के बाद  मिटने, मरने और इतना  मिटाने, मारने के बाद। साल से ऊपर हुआ  यह देखते हुए, अपने पे आ जाए तो  जर्रा भी कम नहीं, आखिर गैरत भी तो कुछ होती है। खत्म तो होगा ही एक दिन, आखिर अंत क्या होग...