कितना ऊपर आए हो या नीचे, ध्यान से देखना।

मैं बेखबर था! 

जिसके ऊपर! चढ़ रहा था! 

पता ही नहीं था...समूचा पहाड़, 

नीचे.. सरक रहा था! 

पर मैं, 

मैं…रातों दिन..

पूरी शिद्दत से, मेहनत करता

ऊपर और ऊपर ही चढ़ रहा था।

निसान-ए-पोजीशन, लगाता, दृढ़ होता..

उसी, नीचे.. सरकते 

पहाड़ पर, 

अपनी समझ से 

ऊपर ही सरक रहा था।

आगे, और

आगे.. 

खुश होता, बढ़ रहा था।


अपनी उपलब्धियों पर नाज़ था! मुझे..

मैं बहुत खुश था! 

चढ़ आया कितना ऊपर! 

मुस्कुराता था।

मलाल! तो था.., पर बस, इतना

यही था.. 

लोग... जो दूर, अभी 

जमीं.. पर थे, मेरी तरह... 

क्यों नही.... तेजी से आगे बढ़ रहे थे।


वो तो बाद में पता चला

सारे लोग, सरकते पहाड़, और मुझे 

उपर चढ़ता देख...

दूर नीचे से... 

मुझपर... हंस.. रहे थे।

बात तो सच थी...

वो अपने... शाश्वत मूल्यों, आदर्शों

चाल-चलन, रहन-सहन...

से आज तक वैसे ही 

चिपके हुए थे।


मैं हर दिन सोचता था तब,

बस! अब पार कर लूंगा ये सब..

पर पहाड़... नीचे सरकता गया...

ज्यादा....उससे ज्यादा, 

वो नीचे गया..  

जितना मैं, सारा हाथ पैर मार मार,

ऊपर गया… 


अब तक, छाछठ से ज्यादा सालों की..

निसान-ए-पोजीशन, लगा चुका हूं

इसपर, और देखता.. हूं... 

मैं ऊपर नहीं.. नीचे एक अंतहीन

अंधकार के दरवाजे पर

पहुंच गया हूं।


मेरी चढ़ाई...जिंदगी की मुझे 

यहीं लेकर पहुंची है,

अब तो बस, तुम लोगों की

और... 

मुझे देखने की बेसब्री लगी है।


बिल्कुल आज के 

जीवन शैली और सभ्यता सा..

वो पहाड़.. जो दिखता है ऊपर जाता..

ज्यादा नीचे सरकता है।

कभी तुम भी सोचना 

कितना ऊपर आए हो या नीचे, 

ध्यान से देखना।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: आज की प्रगति, औद्योगिकीकरण और स्वीकृत सभ्यता-संस्कृति हमे कितना आगे या पीछे ले जा रही है अब धीरे धीरे पता लग रहा है। हम पानी और हवा को हद तक दूषित कर चुके। और मानवता के नाम पर कितनी लड़ाइयां हो रही हैं सामने ही है। संबंधों की गहराई और अविश्वास का वातावरण हम अपने और आमजन के जीवन में देख रहे है।सारा श्रम और उपलब्धि हमे कितना ऊपर ले आई, अपने जीवन का मूल्यांकन कर के देखें।





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