जन्नत! तुझे दिखाऊंगा।

आओ मिलते है 

एक बार 

आज फिर उससे 

शुखनवर बड़ा संजीदा है 

बाहर निकला ही नहीं,

आज तलक, मिला है जबसे।

भाव: सेल्फ से मिलना, एक अद्भुत वाकया होता है। जो अपने भीतर छुपा बैठा है सदियों से बड़ी मुश्किल से उससे मुलाकात कभी मुश्किल के क्षणों में ही होती है। चलो आज उससे फिर एकांत में मिलते है।

मै खुला हि... नहीं 

गांठे... इतनी थीं,

सिकुड़... भीतर ही 

बहुत थोड़ा निकल... पाया हूं। 

मत पूछ!  

ये जगह भी कैसे बनी... 

इच्छाओं को जला जला... अंदर 

देख! अब कितनी, थोडी जगह 

अपनी बना पाया हूँ। 

भाव: यह जीवन संसार में इतना ज्यादा मिलकर एकसार हो गया है कि हम अपने लिए एक क्षण भी निकाल नहीं पाते। इससे निकलने के लिए अपने अंदर की इच्छाओं को कम करना होगा। तब कहीं आत्म और आत्मन से मुलाकात संभव होगी।

जिंदगी गुजार के 

एक शमशीर बनाया उसने 

बन गई शमशीर 

 प्यार धार पे आया इतना, 

वार पहला ही 

खुद पे आजमाया उसने। 

भाव: जो चीजे आपको बहुत ज्यादा प्रिय होती हैं वहीं आपके लिए सबसे मजबूत बंधन भी होती हैं। और आपके जान की कीमत भी वसूल करतीं हैं। इसे याद रखें अर्थात दिल दुनियां में अंधे होकर न लगाएं।

उसकी आंखे बूढ़ी थीं 

पर दौर-ए-अंधेरे 

जगनुओं सी चमकती तो थी 

वो जवांदिल था 

पर आंखों में रौशनी कम थी। 

भाव: जिंदगी उम्मीद और पॉजिटिव नेस से लड़ी और जीती जाती है, ताकत और साधनों से नहीं। अगर जिजीविषा नहीं जीवनी शक्ति नहीं तो जीवन भी नहीं।

दिल में, उसको कोई 

दुश्मन...ही,

 नजर, नहीं आया... 

क्योंकि, उसने..जीवित प्रशांति

खोजी..थी।

बड़े मुश्किल..से पाया था 

रास्ता इसका..उसने 

सदियों मुट्ठी में ले के, 

बैठा रहा.. 

जबकि दुश्मनों से घिरे 

जमाने को

निहायत जरूरत थी इसकी। 

भाव: संत महात्मा, फकीर, मौलाना, पीर बैज्ञानिक, कुछ बड़े पहुंचे हुए लोग कुछ भी पा जाएं वो किसी काम का कहां जब तक उसका लाभ आम जन को न मिले। उसका सारा पावना बेकार ही है।

युद्ध लड़ना है… 

तो शमशीर…. बनाओ यारों, 

प्यार से रहना है 

तो शमशीर की 

जरूरत ही नहीं। 

भाव: बहुत ही अच्छी तकनीक हो अगर जनहित में नहीं तो बेकार है। अतः पहले जरूरी है कि प्राथमिकताएं मूल निश्चित की जाएं, बे सिर पैर की जैसे स्मार्ट सिटी टाइप की चीजे कतई अच्छी नहीं जिसमे बेकार तोड़ फोड़ हो रही है।

वो कुछ भी करे, 

चाहे जो भी पा जाए.. 

हवा यही लेगा, 

जब कभी भी निकलेगा 

अगर नहीं, 

 हवा भी कैद कर लेगा 

तब भी मानो मेरी… 

रोशनी.. इसी सूरज की ही.. 

हमसाया… होगी उसपर… 

चाहे जिस भी गली, 

 कैसे भी वो निकलेगा। 

भाव: हमे जो चीजे सभी के लिए है उनको अपने व्यवसाय और निजी लाभ के लिए प्रदूषित नहीं करना चाहिए क्योंकि हम सभी को उससे जीवन में वास्ता पड़ेगा और तब हम शर्मिंदा होंगे अपने से अपने कर्मों से।

पहले लड़ो, 

लड़कर… मरो, 

अगर बच ही गए यार तुम! 

लड़ते लड़ते, 

आगे सीनों पर… घाव लिए 

तभी तो जन्नत! 

तुझे दिखाऊंगा। 

भाव: सफलता का स्वाद परिश्रम करने वाले को ही मिलेगा। कामचोर को कही जगह नहीं।

जय प्रकाश मिश्र

 

Comments

Popular posts from this blog

मेरी, छोटी… सी, बेटी बड़ी हो गई.. जब वो.. पर्दे से

एक नदी थी ’सिंधु’ बहने सात थीं

वह सूरज है, अस्त होता है, मर्यादा से नीचे नहीं गिरता