कुछ फूल हैं, मैने बनाए..

कुछ फूल हैं...  मैने बनाए..., 

तमन्ना.... दिल में संजोकर.. 

प्यार से..., 

इन कागजों… पर, ., 

तेरे लिए, बस! तेरे लिए।


आवाज भर कर भीतरी... तूं! सुन सके, 

सूंघ कर, इनके परों की..महक को, 

देखकर इनको... मुझे तूं मिल सके,,,

नजदीक... से

हर, दूरियों को मेट कर, 

अंदर हों बाहर, मन, हृदय में।


सामर्थ्य!  मेरी? बहुत, कम… है,

एक जर्रा.. मै बनाऊं!  

सोच से बाहर है मेरे... !

सच सुना है आपने, यह...

मैं भी...., यही तो... कह रहा हूं, 

महक उनकी… 

आपको अच्छी लगी… 

ये करिश्मा! … मेरा नहीं है,

उसी का है, 

जो छुपा.. है आपमें, मुझमें कही पर...।

जानते है आप, ये सब! 

पर, न-जाने  क्यूं, ब्रदर.. 

साफ कहते ही नहीं हैं, कभी मुझसे।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: रचनाकार पाठक के लिए अपनी पराकाष्ठा की सीमा तक ही सुंदर, रसभरी, भावपूर्ण शब्द रचना.. "पुष्प रंगीला" बना कर सुरभित कर ही प्रेषित करता है, जो पाठक तक पहुंच कर अपनी बात उसको सुना दे। पर.. यह शक्ति.. उसकी नहीं पाठक में निहित होती है। यदि वह रचनाकार अपनी प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है तो रचनाकार में शक्ति नहीं की वो किसी का अंतर्मन खोल दे यह दैवीय शक्ति पाठक में ईश्वरीय अनुकंपा से ही आती है।

कौन है, उसके अलावा… 

जो भरेगा.. स्वाद, खुशुबू… रंग, जादू

अक्षरों के श्याम-पट में.., श्याम उर.. में,

जानते है आप भी सब…! 

पर जाने न क्यूं, ब्रदर, 

आप.. कहते ही नहीं हैं; 

कभी मुझसे... इतर हटके।


मगर, इतना कहूंगा ...मैं

खर्च हो जाता हूं, सारा...

बड़े मुश्किल से निचुड 

पाता हूं... थोड़ा....

समय लगता है, इन्हीं में

तब कहीं आगे मैं भरता, 

और लिखता  

पहुंचता हूं आप तक।

जानते है आप भी सब…! 

पर न जाने क्यूं, ब्रदर, 

आप.. कहते ही नहीं हैं; 

कभी मुझसे... उधर चल के।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: एकमात्र ईश्वर ही अक्षरों में अपनी शक्ति भरता है उन्हें अनुप्राणित करता है, जिससे उनमें स्पंदन शक्ति और महक आती है। पाठक वह सब कुछ पा जाता है जो-जो लेखक उसे देना चाहता है। यह पाठक और रचनाकार दोनों जानते हैं पर श्रेय दोनों परस्पर पर डालते है।

दो, रंग में..! 

ना-ना!  एक ही..तो.!  

रंग में...,  मैने... लिखे थे, 

आकृती! मैने बनाई!  

ना ना.. नहीं! 

कुछ सरल, सीधी, लाइनों से, ही बने थे, 

निर्जीव ही थे, सकल वे...

चुपचाप थे, जड़ खड़े थे, पास तेरे

कुछ बोलते तो नहीं थे.. स्वयं वे

जो भेजे तुम्हे थे... बस शब्द ही थे...

सोचता हूं आज तक, मै बैठकर 

क्या इन्हीं से, तुम मेरे, इतने हुए।

जय प्रकाश मिश्र

भाव: सारी रचना काले रंग से केवल एक रंग का प्रयोग कर लिखी जाती है, कोई आकृति नहीं बनाई जाती सीधी लाइनों में सब लिखा जाता है और अक्षरों में जीवन नहीं निर्जीव होते हैं पाठक के पास एक जड़ छाया से जाकर खड़े हो जाते है भौतिक रूप तो यही होता है पर असर कहां तक करते हैं कि लोग एक दूसरे से अंदर से जुड़ जाते हैं। और एक दूसरे पर न्योछावर हो जाते हैं।




 








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