नव वर्ष

नया साल....  

आने को है.. आज ... 

आधी रात को, सुना है मैने...

खुश होकर उसने... 

काले.., नीले.. ऊपर तने.., 

वितान तले.. 

नभ पर..नीचे, 

सजाए हैं, अनगिनत 

टिमटिमाते, तारों..के, अद्भुत... दिए।


चांद! अभी शाम 

"पहर" पहले, 

पौष शुक्लप्रतिपदा का, 

कदम रख, धीमे-धीमे 

नेपथ्य लौटा है, 

आज की व्यवस्था देख... ।

पौष की ठिठुरती.. शीत भरी.. रात्रि

अभी और लंबी होगी, 

मुझसे कहकर गया है,

पर उजाले... बढ़ेंगे जरूर आगे... 

साल के साथ साथ

चलते चलते 

इशारे भी, करके गया है।


उम्मीद से हूं, आशावादी भी हूं...

सबको सद्बुद्धि दें "वे"

सभी मिलजुल अच्छे से रहें, आगे बढ़ें, 

नए साल में नई उमंग मन में भरें..

प्रायश्चित और पश्चाताप से बचें..

हर जीवन, मन, हृदय को समझें..

युद्ध से बचें, 

हर मानव भाई है, सभी सोचें।

व्यवसाय सेवा है, इसको स्थान दें..

हमारी क्षमताएं गिफ्टेड हैं, 

इनका दुरुपयोग न करें

जीवन में शील, संयम, शांति, मैत्री 

और सम्यकता धारण करें।

जय प्रकाश मिश्र

आज की कविता

जाने न कितनी बार 
लेकर जन्म... 
मैं मिट्टी हुआ... हूँ,
मिट्टी में पुता..., सनता हुआ, 
रमता... रहा हूं।
"प्रेम मिट्टी में मिला" हर बार 
मैं प्रेमिल... हुआ हूं
सच कह रहा हूं, 
जानता हूं.... मिट्टी है यह...! 
इस बार भी... यह जानता.. 
अच्छी तरह, हर तरह, 
इसी में मैं मिल रहा हूं।

मैं, अलग हूँ 
सर्वदा से..., मिट्टी... नहीं हूँ, 
जानता.. हूँ 
कौन मेरा... कुल बताएगा 
मुझे..
मैं आदि-शिव.. हूं, 
अ-कुल.. हूँ,
कुल बनाता... फिर रहा हूँ, 
मिट्टियों में, 
क्या मैं, यही हूँ? 
ध्यान से देखो मुझे, 
चिन्मयी का रूप लेकर...
आदि-शिव का प्राण भर कर...
सो-अहम की स्वांस पर मैं 
चढ़ रहा हूं, 
हंस-केलि कर रहा हूं,
आदि से... मैं उतरता... हूँ। 
मिट्टियों में रूप लेता, 
गुण में सनता
काल की इस पीठ पर 
मैं बैठकर  
नृत्य करता फिर रहा हूँ।
क्रमशः आगे...
जय प्रकाश मिश्र

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