मनुष्यता का धर्म।
किसने बनाया, क्यों बनाया
शब्द यह, उपजा कहां से...
कारण बना है,
आदमी को बांटने का, जब से जहां से
इस जहां को.. देखता हूं मैं!
अलहिदा सब रंग ले, ले
अलग हैं, एक दूसरे से,
सारे के सारे,
नील…कोई, हरा कोई...
भगवा है…. कोई, श्वेत है..।
जाने न क्यूं हैं रंग, इतने,
इतर सबके..
पर! काम इनका एक.. है,
नेक… है..
कहते सदा से…, आज भी,
अब भी यही, मैं सोचकर हैरान हूं।
सारे झगड़े और रगड़े
बड़े… जो हैं,
जहां में
जिंदगी की नाप.. से,
इस आदमी के..
आज भी..
केवल यही.. हैं, बस यही.. हैं
आज जग में देखकर
अचंभित हूं, दुखी हूं, ....... हूं।
क्या अलग हो..
आज ही...
आदमी की जिंदगी से... शब्द यह,
अब जरूरत... इसकी नहीं है
आदमी को.. और आगे
आज की दुनियां सबल… है।
पूर्व की उस… स्थिति से…,
जब बना था शब्द… यह..
इस.. विश्व में,
रक्षार्थ उनके क्षेत्र में, उस काल में।
क्या चुक गया..
पानी... था इसका... मृदु.. मधुर..
जो आत्मा.. था, सरस.. था,
वास्तविक.. सद्भाव था..।
बहते.. बहते..
इस एरा... तक
सोचता हूं, मैं अकेला बैठकर।
कारण बना विद्वेष का यह,
संघर्ष का यह,
हर दिन सबेरे देखता हूं,
क्या मर्म... इसका मर... गया है..
मात्र सूखी.. देह इसकी.. शेष हैं अब!
जो दुखी करती..
मनुष्यता की देह को, संग लड़ रही है!
आज तो हर ओर यह..
तुम ही बताओ?
धर्म क्या यह! जरूरी है.. आज भी
उतना अधिक
जब बना था जिस लिए.. .
जिस काल में ..सबके लिए।
ठीक क्या है, गलत क्या है
कौन निपटारा करेगा...
कैसे पलेगा जिंदगी में सच! सभी के
यदि नहीं होगा यहां यह शब्द
ये भी सोचता हूं।
दिव्यता कैसे उगेगी,
कौन देगा दिव्यता को मान! आगे
क्या यहां पशुता रहेगी मात्र जीवित..
हैरान हूँ सब देखकर..।
धर्म क्या है..
सतत... जो है, थोड़ा बचा है..
रस निरंजन..
बह रहा जीवन लिए, चिर काल से.. यह
जिसपर टिका है...
सच कह रहा हूं... हम सभी का कल।
धर्म क्या है..
शेष बच जाता सदा जो,
प्राप्तियां बन,
रोक लेती, सोख लेतीं हैं जड़े
इस मनुष्यता की
पकड़ जिनको...
यह जीवन चलेगा कल...।
हर स्वास का रक्षक हो! यह
यह सत्य.. हो!
कुछ करो मिलजुल... अब रहे सबमें
बचा यह, मनुष्यता का धर्म।
जय प्रकाश मिश्र
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