आज की दुनियां पर रोना आया।
युद्ध और हम
क्या इसमें भी
एक राय, नहीं हम! आज,
रुक जाएगी,
सच!
एक दिन रुक जाएगी
नफरतों की बहती ये नफरती आग।
जो जल रही है।
बीच में कबसे, तक आज
हमारे-तुम्हारे,
जाति, धर्म, देश और समाज।
संप्रदाय, पंथ, के बीच
बोए अनगिनत बीज!
हां ये भी सच है,
अभी बाकी है
खाक होने को
बर्बाद होने को
हमारा सुंदर भविष्य।
हमारे बच्चों की जिंदगियां,
हमारी आशाएं।
कितना और शर्मिंदा होने को बचा है,
महाभारत! जो महायुद्ध था
उसके बाद जो हुआ
क्या कुछ और देखने को,
अन्यथा भी बचा था।
हम भूल गए?
वो निर्धनता, निर्जनता,
वो चित्कारती शांति, अफसोस का रोष!
क्या वही सब,
फिर से दुनियां देखेगी...
वही ध्वंश!
जीवन का कातर आर्तनाद!
कितनी परीक्षा देगी मानवता?
क्लेश, दुख, पीड़ा अभी कितनी बची है।
जो नहीं निकल पाई है,
अन्याय, अत्याचार, आक्रमण,
की इतनी हद के बाद
मिटने, मरने और इतना
मिटाने, मारने के बाद।
साल से ऊपर हुआ
यह देखते हुए,
अपने पे आ जाए तो
जर्रा भी कम नहीं,
आखिर गैरत भी तो कुछ होती है।
खत्म तो होगा ही एक दिन,
आखिर अंत क्या होगा?
अधिकतम विनाश के बाद
चुप और घुप शांतिवन में,
नन्हे और बूढ़े लोगों की
कराहें, औरतों का विलाप
मन का संताप।
तुम्हारी पहचान क्या है,
ये काली या गोरी चमड़ी!
इसके भीतर कौन बैठा है
उसे पहचानो .....
बच्चे एक ही है,
सारे कब जानोगे तुम..
भविष्य सबका साझा है
अकेला कुछ नहीं।
तुम भाई भाई हो सब सारे मानव
अपनी अंतरात्मा से पूछो?
तुम्हारे ही नहीं हैं वो, ..
उनमें ही "वो" खुद है, देख तो..
तुम विश्वासी नहीं
तो..
मूर्ख ही हो।
गुजर जाओगे,
अपनी नाव, अपने हिस्से का पानी,
संग में अपनी पतवार लेकर,
एक दिन।
पर,
यह नदी है
बहेगी, बहती रही है,
आदि से ले आज तक इस ही तरह
लोग देंगे गालियां, हेय रहोगे सदा!
जी भर भर के तुमको।
एक दिन
यातना गृह में जो दुह-शांति
आज है,
ज्यों जर्मनी में.. वही होगा,
तुम चुपचाप वैसे खड़े होगे
प्रायश्चित करोगे
अपने कृतों पर, बिलकुल अकेले,
विजित, शांत, शर्मसार,
गहरे दुख से भरे।
जय प्रकाश मिश्र
इज्जत बचाएं... कैसे,
किसी.. रुतबेदार की,
मत गुन उसे,
छोड़
उसके हाल पे।
चल!
कुछ और करें,
एक पेड़ लगाएं, प्यारा
देखें उसे, बड़े गौर से,
पानी डालें...
थोड़ा खुश हों, मुस्कुरा लें।
भाव: दुनियां में बड़ी चीजों के चक्कर मे न पड़ो छोटी चीजों में व्यस्त रहो और खुश रहो। यही जीवन है।
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