सात फेरों बाद के ये रंग

आग का, वह रूप था.. 

जलता.. दिया

रात... भर मैं, बैठ कर... 

देखा.. किया..

सुबह धूमिल जो हुआ वो, 

चांद.. था, ...

अरुण आभा संग लिए यह

प्राची दिशा सा..., 

प्रात में भी... 

लौ लिए, दिप-दिपाता... ही रहा।


आज, देखा... 

सुर्ख-ए-गुलाब... 

की... सपनीली, सुंदर..... 

खिलती... - कली, 

सच में अदभुत, मनहर थी..।  

मधुर.. इठलाती, उ-सांसे भरती..

हल्के, बहुत हल्के.. 

पहली बार.. अपने स्निग्ध तन पर

पृष्ठ ऊपर..आवरण....पर.

खोलती...,  

संपुष्ट पुष्ठ, पृष्ठ.. ऊपर,

मुक्त उडॉन की तमन्ना, संजोए..., 

प्यार भर भर.. अखिल... खिलती 

शिख..नख.. प्यार में..सिलती हुई थी।


जीवन की पहली, 

स्नेहिल मुस्कान लिए..

अंदर से...उभरती, उठती.. 

नई... पहचान अपनी खोजती..

कस-कसे, सुष्ठु तन.., 

प्रफुल्लित मन..।

शीत.. की 

अंधियारी.., 

कंप..कंपाती.. 

निर्जन… मध्य-रात्रि, से अलग

निडर..., बेखौफ छूने को... 

निर्मल.... चांद!  

इतनी…उतावली...

अपनी दुनियां में... कितनी मगन।

जैसे.. हाथ में ही हो...  

उसके, ये सारा, 

तारों भरा, विशाल... गगन।


सरे.. राह, 

इतनी सुबह..! 

किस हद.तक..खिलने को तैयार

इतनी तत्पर...।

पृष्ठों पर, 

लिए पारदर्शी, 

निखरेढुलकते, बिखरे, 

हीरक कण..

चमचम चम, चमचम चम। 

शीतलतम 

ओसबिंदु… पहने 

जैसे आज के ही गढ़े हों 

सारे के सारे...ये गहने..।


एक... सच... कहूं, 

अरुण की पहली 

किरण का 

इंतजार, 

उसपर..

भारी.. 

था।

पल.., प्रति पल... उसका 

भीतर से... खिलना 

तिस पर भी... 

जारी.. 

था।


कुछ 

ऐसे ही…रंग 

जीवन में भी भरे…होते हैं,

खिलते…. भी हैं, 

चढ़ते.. भी है.. 

वय.के.साथ 

ले ले उम्र के, अनेकों…सहज पड़ाव।


हर उम्र में 

उस उम्र के ही…. रंग लेकर.. 

साथ में हर ओर… तेरे

मन के हि क्यों…, तन को समेटे,

चौगिर्द, हर वयस… में 

चढ़ती.. उतरती.. ढलती

सबका अंदाज…लिए 

जिंदगी में.. जिंदगी के साथ 

चाहे पक गई हो, कच्ची हो, 

अधपकी हो, क्या फर्क इसे,

रंग... तो रंग.. है 

हमेशा ही हर उम्र के ही संग हैं।


फिर भी 

ये जिंदगी है। 

रंग इसके, एक दूसरे से

जुदा.. जुदा.भी होते है,

खिलने में, खिलते हुए, दिखने में।

कुछ रंग सपने लिए होते है

सपने…किसके. नहीं होते है,

सपने और रंग साथ साथ 

जुड़े, जुड़े भी रहते हैं।

ये ही तो उम्मीद हैं, 

जगह.. जगह.. इस उम्मीद को

ही तो लिए हम फिरते हैं।


सात फेरों के दस्तूर…

वाले रंग,

रंग नहीं, 

रंगीन गुलदस्तों ही गुथे होते हैं

ये गुलदार की फुर्ती 

मन में टांके, 

बिजली की तरह 

चमचम करते

चितवन से,निगाहों से, 

बातों से, अंधरों से, 

चाल से, लयताल से, 

झर झर झरते 

खूब दिखते हैं।


अधरों की लाली में सिमटे 

चुपचाप मुखर होते हैं।

सुंदर बाहों, उंगलियों, 

हाथों की उभरी हथेली ऊपर, 

निखरे मेंहदी का रंग लिए 

अलग थलग ही दिखते हैं।


सातफेरों के बाद रंगों में गर्मी नहीं

शीतलता... आ जाती है,

अब उन्हीं रंगों में.. चुलबुलाहट नहीं 

कुलीनता... छा जाती है।

अब ये रंग... मिलकर 

कभी भी बदरंग नहीं हो सकते,

अब उनमें सच्ची... 

सहनशीलता ही नहीं..

विचारशीलता... भी आ जाती है।

जय प्रकाश मिश्र


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