इस प्रकृति को प्यार कर..

मैं प्रकृति हूं, मां हूं तेरी

सखी तेरी, मित्र हूं

शुक-सारिका हूं, 

तारिकाएं, फूल कलियां, 

नवल प्यारी अरुणिमा 

मैं ही तो हूँ।


घूमते,चलते हुए, 

आकाश को इस बांटते

चमकते… नक्षत्र सारे.., 

चांद तारे.. कौन है 

मेरे सिवा...

हर ओर तेरे, देख तो... 

तूं... ध्यान से, संज्ञान ले... 

इस नियति का।


इसलिए मैं कह रही हूं 

आ..तूं मेरे, पास... आ। 

मुझको समझ!  

मैं दूर तुझसे एक क्षण भी 

हूं नहीं,  मैं मां हूँ तेरी 

मां ही हूं तेरी.

मिल.. गले.., 

मैं, मां… बड़ी हूँ।


आ कभी तूं घर हमारे,

देख! 

दीपक जल रहा है 

घर पे मेरे… सुनहला, 

वो, वो.. दूर आगे, क्षितिज ऊपर

आधान… कर! 

प्रणाम भी कर! 

दिव्यता का रूप है यह.. 

अमर.. है, 

जीवन  तेरा..है

तेरे लिए वरदान है यह..

यह... सूर्य है।

प्रातः में यह अरुण है, सविता भी है, 

भानु है, यह याद रख।


पर देवता है, 

दे.. रहा है आदि से.. 

यह सृष्टि को, इसलिए.. 

तूं झुक... अभी.. 

प्रणाम कर.।

यह पुत्र मेरा! प्रिय मुझे..

तेरे ही जैसा!  

देख इसको, सीख इससे 

बन इसी सा।


प्यार से रह! 

आराम से रह! 

अपना समझ इस विश्व को..

हीनता को छोड़ अपनी..

दिव्यता को सोच अपनी..

तूं अमरता का पुत्र है।

लघु वासना को त्याग अपनी।


तूं मनुज है, तूं श्रेष्ठ है 

तूं बुद्धि से संपन्न है..

तेज तेरे लहू.. में है

ज्ञान.. से तूं पूर्ण है।


हर जीव तेरे… अपने ही हैं,

हर वृक्ष तेरे.. अपने ही हैं,

वे क्या हैं लेते.. सोच तो! 

क्या हैं देते.. सोच तो! 


तेरे प्राण का आधार हैं वे..

तेरे आहार का सामान हैं वे..

उपचार तेरा वे हि हैं..

तूं ध्यान दे.. 

अब उन सभी का।

मत सता, उन्हें मत दुखा।


प्रेम कर, करुणा से रह..

तूं आगे बढ़।

मैं प्रकृति हूँ 

मां हूं तेरी ही, ध्यान रख

तूं हम सभी का, ध्यान रख,

मत दोह कर! मत दहन कर

मत क्षरण कर! 

जितना बने सुन हाय मुझसे 

इस धरा को, 

इस प्रकृति को प्यार कर।

जय प्रकाश मिश्र


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