प्यारी सुची 🥰 जीवन प्रक्रिया..

एक लड़की बड़ी भोली
बहन थी रुशिका की वो🌸
हाथ गालों पर लगा कर🤚
सोचती थी...  
जाने न क्या वो
पर अभी वो 
बारह भी दिन की थी नहीं 
पैदा हुई थी जर्मनी के 🇩🇪
बर्लिन में वो।
Rushika Mishra class- 3

आज की कविता: जीवन प्रक्रिया..

वह नियंता बैठ कर 

सब देखता 

क्या कर रहा था? 

इतना अंधेरा, घुप अंधेरा!  

उसके लिए .. ..

क्या.....अंधेरा था? 

नहीं.....

वह तो... 

एक कुत्ता काल का.. 

काला लिए, पकड़ उसकी डोर 

बस, चुप चुप खड़ा था।

पर विकट था,  काल! यह

विपुल वैभव विश्व का 

सिर माथ पर लादे बंधा था।

भाव: समय संसार में प्रमुख कारक है संसार की गति और परिणति के लिए वह ईश्वर के हाथ में पालतू कुत्ते सा दुम हिलाता अपने ऊपर इतनी जिम्मेदारी लिए उनके पास खड़ा रहता है। वहां सूर्य का यह प्रकाश नहीं मनुष्य के लिए गहन अंधेरा है, वहां ज्ञान का प्रकाश मात्र है। अपनो के लिए वह जगह गहन अंधेरी है।

चमकते उस सूर्य को 

खुद में समेटे, कालभैरव रूप था

वीभत्स था!  

वह क्रूरता से हाय!  कैसे हंस रहा था।

काल के इस कालिमा के राज्य में

क्या? शक्ति है.... !

क्षीण हैं, कर्तव्य सारे, मौन हैं...

गति हीन है, 

तन मन सभी कुछ, हों जहां तक..

उम्मीद का अवसान है यह..

शक्ति की यह शून्यता है, 

या 

शून्य का व्यापार है यह।

भाव: काल को क्या कार्य दिया  गया है, जब वह अपनी ड्यूटी नहीं करता होगा तो क्या होता होगा सब बंद, शांत, परिवर्तन रहित अर्थात सब कुछ रोकने की शक्ति से वह महत्वपूर्ण, अजेय बना हुआ है। सूर्य उसका अनुचर होगा क्योंकि सूर्य काल का साधन है। काल क्रूरता का प्रतीक है यह निर्मम भी है। काल का व्यापार या कार्य है शून्यता न आने पाए जग चलायमान बना रहे।

काल की इस कालिमा के

हृदय में क्या क्या छुपा है..

जिसको लिए यह नियतिपथ पर 

आज भी इतना बड़ा है।

भाव: नियति के कार्य में हस्तक्षेप करने की ताकत काल में समाहित है इसलिए उसकी महत्ता है।

क्या अनुभवों की शून्यता, 

स्थिर हुआ मन..

आत्म का अवधान, 

दूरी विश्व से..

सोच से, मन इंद्रियों से 

मार्ग है..

इस घोरतम का..

नहीं तो!  

इस कालपशु से निकलने का, 

भेदने... का मार्ग क्या है? 

भाव: योगी और संन्यासी ही नहीं मनुष्य भी कालजयी होने की इच्छा आदि से रखते है पर यह अजेय बना हुआ है। क्या इसका मार्ग स्वासनियंत्रण, मनइंद्रिय और अनुभूति पर विजय या विश्व से अपेक्षित दूरी हो सकेगा।

बैठा हुआ है 

दुम हिलाता पालतू बन! 

विधाता के चतुर्र्दिक घेरा बनाकर

डोर में बांधा हुआ यह 

आदि से ले आज तक।

शून्य था 

स्थान उसके चतुर् र्दिक..

बह अंधेरा पूर्ण... था

दृष्टि सीमित हो गई थी.. 

मत.. कहो

दृष्टि बाधित... हो गई थी...

यह कहो।

भावना और भाव भी 

उत्पन्न होते है वहां...

थोड़ी जगह... 

उन्हें रख सकें... ऐसी तो हो।

काल तो बस ब्लैंक है।

भाव: काल का अपना रूप अपरूप और वीभत्स काला, अदृष्ट अंधेरा है। यह दयाहीन और करुणाहीन है। क्योंकि कुछ होने के लिए कुछ तो दिखाई दे। वह तो आदर्श कालिमा मात्र है।

जन्म का अंधा...

घिरा हो अंधेरों के.. शत.. पटों से..

कालिमा खुद रूप लेकर खड़ी हो...

कुछ इस तरह 

वह रात्रि थी काली वहां

पर सृष्टि का, वह भाग थी...

असीमित... रूपहीना, 

बुद्धि रुकती किस तरह, किस जगह पर।


शून्यता थी 

हर तरफ से घिर गई, 

अपने गुणों से रिक्त होकर...

रिक्तता तो खुद खड़ी थी, 

अनमनी होकर..।

अंत था यह.. अंतता का.. 

और कुछ भी था नहीं

एक खालीपन भरा.. चहुंओर था,

नग्नता का वेश लेकर.. 

शून्यता फैली हुई थी

सहज 

अपने रूप में.. चारों तरफ।

भाव: काल के साम्राज्य का वर्णन है। वहां घन अंधेरा होने से दृष्टि शून्यता है इससे नितांत शांति और रिक्तता है। निरसता का रूप है इस काल का क्षेत्र।

इस शून्यता में, 

आत्मता की शक्ति थी,

एक क्षीण रेखा 

उस शक्ति का आगाज थी..

जो अमित है, अमिट है, और असित है

अपदार्थ है, हर एक कण में 

हर एक क्षण में

भाव: सबकुछ के बाद भी उस काल का अस्तित्व चाहे जैसे भी हो वह है। वह हमारे लिए रिक्त, शून्य, अदृष्ट होकर भी अकाट्य है, सच है, अनुभूतिहीन होकर भी मान्य है।

यह आत्मता... स्वजागृति थी

अंतहीना... शक्ति थी

अपदार्थता में सनी... थी, कुछ इस तरह..

स्मृति संग में लिए,  निज अंक थी।

भाव: अगर कुछ सत्य है तो वह कितनी भी हीन हो सत्य के गुण से हीन नहीं हो सकती। उसकी आत्मता तो है कि मैं हूं मेरा अस्तित्व है। फिर उसमें जीवन होगा और हर सत्य की तरह उसका इतिहास होगा। पूर्व का और अंजाम भी होगा।

उद्भव... से लेकर अंत.. तक का 

स्मरण... उसने किया,

फिर एक क्षण में...

एक अणु... में लौट आई। 

शून्यता में आत्मता 

यह टिक गई..

जन्म लेती..., मृत्यु मरती...

 इस भंवर में युग युगों से विचरती, 

अंधता के गर्भ में, 

शून्यता के अंक में

देख निज की स्थिति, 

शांत चुप हो सो गई।

भाव:  आत्मज्ञान जब हो जाता है तो शरीर गौण हो जाता है। रूप, आकार महत्वहीन हो जाते हैं।और आत्मज्ञानी को अपना भूत भविष्य सब स्वतः संज्ञान हो जाता है। उसमे प्रशांति आ जाती है। वह विश्राम की अवस्था में ही रहता है।

रूपहीना रूप है, अमूर्त का उस

लहलहाता लहकता जो दिख रहा है...

वह वही है... जो गढ़ रहा है 

सूर्य को नित...

बैठ कर आनंद से, 

ज्ञानघन... अज्ञान बन... वो।

भाव: बनने के पहले रूप और मूर्त कुछ नहीं होता, उसे शिल्पकार अपने अनुसार बना कर क्षमता और सामर्थ्य दे देता है वह चाहे हम ही क्यों न हों। जन्म से पूर्व नहीं थे।विधाता ने रचा और जीवन दिया।

आबद्ध है, निज कर्म से
रूप..., केवल धर्म है, 
इस नियति का..
जो उभरता...

हर एक क्षण... हर वस्तु में...

चुप अकेला... बैठकर 

वह गढ़ रहा है आदि से...
घन अंधेरे, 
दिन के उजाले रात दिन।

 भाव: नियति और काल दोनों का धर्म सृजन और परिवर्तन और नवीकरण है। चौबीस घंटे अनवरत यह कार्य प्रकृति और काल मिलकर संपन्न करते रहते हैं नियंता इसमें मात्र संज्ञान तक सीमित हैं।

कौन सी छवि... 
किस जगह वह बनाता है,
वह जानता है, किस लिए... 
किसके लिए ... वह गढ़ रहा है।
हर जन्म के पहले... 
विधाता... सोचता है...
किस जगह 
किस मूर्ति को वह रख रहा है।
एक छवि को बनाने में 
लाख छवियों को मिटाता सोचता... है
तब कहीं निर्णय... है लेता 
रूप.. का गुण... का 
अरे वह तेरे लिए।

भाव:  हर आदमी का हर वस्तु का पूरा ब्यौरा वहां है किसको कहां कब पैदा करना है कब हटाना है।हर एक को बनाने और भेजने के पूर्व वह पूरी दरयाफ्त करता है।

जन्म से पहले 
पड़ा था शून्य में तूं...
रात्रि कह या... शून्यता घेरे पड़ी थी...
एक स्लिंफुग थी..
कालक्रम के गर्भ में.... सोई हुई,
अनन्तता में... चेतना खोई... हुई थी।

भाव: वस्तुतः सोल अग्नि रूप है। पवन से पलटी है, पृथ्वी इसका रूप गंध और काया है। जन्मपूर्व आत्माएं काल के भंडार में सुस्त और चेतना हीन पड़ी रहती हैं।

आदि दिखता था 
न उसको अंत ही 
शून्यता के बीच में 
वह चुप.. पड़ी थी।
पर शक्ति थी वह 
स्वयंसिद्धा, आशा 
किरण...... थी,
लहर से लय ताल 
करती, स्पंद लेती
जीवित कहीं.. थी।

भाव: आत्मा में शरीर न हो पर आत्मता होती है बनी रहती है। भान होता है क्योंकि वह संवेद्य है।

लौट आती थी 
किनारे क्लिष्ट पाकर।
डूबती थी... आत्मता में 
भीगती... थी.
जब छू दिया 
किसी प्यार की 
ठंडी लहर ने
गहरे  
जैसे.. आज उसको 
पास.. से
उस गर्भ में.. सोती हुई 
देख ये.. मोती बनी।
कुछ इस तरह से.. देख रुशिका
आज यह है... शुचि बनी। सुची बनी।

जय प्रकाश मिश्र

Written by, Dadu and Rushika



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