चीजे सरल थी, अच्छी भी थी
चीजे सरल थी,
अच्छी... भी थी
धीमी तो.... थीं
पर.. स्वभाव के
अनुकूल.... थीं
काम के अनुरूप थीं।
दिनोंदिन..
बहती... हुईं
जल धार.. सी.
कई सदियों बाद, वे
जीवन नद.. बनी
जीवन से सनी थीं।
मदमस्त जीवन
लय.. ताल.. में
क्या बह.. रहा था...
सभी चीजें.. जो भी थी
हर एक के.. प्रचलन में थीं।
पर, जो भी थीं.. वे सरल थी,
सच कहूं... अच्छी भी थीं।
अब क्या कहूं!
उस विधाता को
इच्छा है उंनकी!
जो किया उनका किया है
अंधा.. मशीनी युग वे लाए
सोचकर अच्छा ही लाए।
अपनी शक्ति देकर,
‘पावनी’ इस जगत में
विज्ञानी.. जीव को
क्या.. रच दिया,
सच कहूं..., भैया
उन्होंने….मान लो
उस्तरा...चाकू चाहे, जो कहो
इन मूर्ख! बंदर... के हाथों दे दिया।
स्मृति, विज्ञान थोड़ा
सा दिया उसने
मगर, देख
तो इसने,
घर, पूरा अपना, सारा का सारा
ऐशो आराम के
सामान से ही भर लिया।
सच मान मेरी,
ज्ञान, बुद्धि, विवेक देकर इतना, इनको
सारा गुड….
ही गोबर…. कर दिया।
यह यात्रा थी
सुखद… खुद में
कुछ दिनों.. की,
बीच में, एक दूसरे संग
हंस मुस्कुरा, मिल बैठने की
बात, कर कर, आपसी, फिर लौटने की।
समझने, की
कठिनाइयां, एक दूसरे की..
पाठशाला, अति.. सरल थी
समय.. क्या है, प्रगति… क्या है
दूर थे इस ज्ञान से हम
जानते तक थे नहीं!
प्रतियोगिता क्या चीज है!
सहज थे, सुंदर नहीं थे…
बाहर से हम…
पर सहोदर… बन
हमेशा से जी रहे थे…. साथ हम,
एक.. दूसरे के।
बुद्धि की
मछली चपल यह…
विवेक का..
बगुला.. भगत यह..
ध्यान… का
कौआ ये… काला
विज्ञान…. का
पक्षी… निराला।
क्या? क्या? कहें! हम..
क्या कहे हम?
आज अपने खेत में..
मजदूर हैं हम..।
जाने कहां? किन जंगलों से!
उड़ के आए..
खा गए सारी उपज…
जो हम उगाए।
दूर कर परमात्मा
तूं दूर कर!
ज्ञान बुद्धि हाय!
इनसे दूर कर!
आदमी.. संग
प्रकृति के..
मस्त.. खाता, खेलता… था,
शाम होते,भरपेट खाकर
मार खर्राटे, गजब,
बेधड़क हो लेटता था
सुबह हंस कर बोलता था
क्या हाल है काकी बताओ?
कुछ काम हो करना तुम मुझको बताओ!
राजा था जो,
आराम से
हिल डोलता था
सुबह से हैरान है, खबरों में गुम,
परेशान है..
मालिक तो है ये फर्म… का
पर सरकार से, नौकर से अपने,
ग्राहको की बेखुदी से,
प्रतियोगियों के पेंच से
रात दिन परेशान है।
क्या कहूं मैं, क्या बताऊं
कितने धागे… जोड़ डाले..
हाय! इसने...
जिंदगी की डोर से…
देख तो…
हर धागे से.. दिल बंधा है ...
खिंच.. रहा है
किस ओर जाए.. किसकी सुने..
मात्र! दो रोटी का.. सवाल था
ग़ैरत में इसकी जान.. है
क्या करेगा और आगे
देखता... हूं
पर, एक सच कहूं…. सुन
जरूरत से ज्यादा
आज यह दिखावट… में
हंड्रेड परसेंट, पक्का परेशान है।
उड़ रहा था… कल्पना में..
कल्पना में… गिर पड़ा है…
कोई मार्केट ही… उठ…रही थी
कुछ देर… पहले..
वो मार्केट ही .. गिर पड़ी
कुछ देर पहले...
राहुल का खुलाशा सुनसुनाता
गालियां बकता उसी को
गिर गया है, अभी ये...
देश द्रोही, देश द्रोही.. कह रहा था
ना जाने किसको..
सुबह, प्रातः काल से ही...
आज ये धड़ाम… है।
ये वहीं… बैठा हुआ था
मोबाइल लगाए कान में
क्या खबर.. आई, कहां से..
बाहर भगाओ.. आज ही बाहर भगाओ..
बकता हुआ.. ये गिर पड़ा..
नब्ज गायब हो गई है,
डाक्टर भी कह गया है...
ना बची..है नब्ज़ इसकी ना बची है।
इसलिए मैने कहा है…
चीजे सरल थी, अच्छी भी थी
स्वभाव में, धीमे धीमे
दिनोंदिन.. बहतें बहते
पानी.. सी.
सदियों में, जीवन नदी.. बनी
मदमस्त लय ताल.. में
सभी के… प्रचलन… में थीं।
पर, वे सरल थी, अच्छी भी थी
जय प्रकाश मिश्
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