आंचल से कोई झांकता है, बाल शिशु हो..
मैने,
देखे है
’पग’ ना जाने कितने आजतक
पड रहे थे ’जमीं’ पर वे
पर ’अलग थे’, हर एक, वे
’एक’ दूसरे से।
हर एक पग की चाल में
अन्तस.. छिपा था
अध्याय था, पूरा छिपा..!
सच कह रहा हूं
मान लो, यदि, नहीं तो,
खुद ही आकर सुलभ हो, जब
निज दृष्टि से तुम देख लो।
वह!
एक था
वह कौन था
मैं जानता तो नहीं था
पर मुझे, निज चाल से वह
कोई. महीपति, अधीपति सा
लग रहा था,
वह चल रहा था..
सामने कुछ इस तरह
गजराज.. हो, मद में भरा..
छीनता इस भूमि को..
वो.. बढ़ रहा था..।
भूमि पर जिस चल रहा था
विजित करता…,
नाम अपने,
कर रहा हर एक पग को,
रख रहा था।
अर्जना का भाव लेकर
खींचता था, भूमि को
निज पास अपने,
भूमि कोई
वस्तु हो..
कुछ इस तरह, हर कदम पर.. कदम
अपना रख रहा था।
लग
रहा था,
बंध रहा हो,
हर एक पग से
आज वह, कल के लिए,
जोड़ता उस भूमि को,
छत्र अपने, ही तले।
देखता पीछे बड़े ही ध्यान से
मोह में बंधता हुआ सा चल रहा था,
मैं अधीपति, महीपति,
मैं भूमिपति हूं बावला,
हर एक पग में
आत्मता को
रख रहा
था।
एक था..
वह साधु.. था,
अर्हत.. हो कोई, बुद्ध.. हो,
सच! मुझे ऐसा हि..
तो कोई.. लग
रहा था।
दान करता,
हर एक पग को,
किस नम्रता से, संतुष्टि का वह भाव
मन... भर, चल रहा था।
तवा.. हो कोइ, गर्म..
नीचे पांव के..
कुछ
इस तरह,
हर एक पग..
जल्दी हटाता.. चल रहा था।
मुक्त हो हर एक पग से,
मुक्त हो, त्यागता
इस भूमि को
सच! वह
लग रहा
था।
एक
और था
गृहस्थ था, वह,
गांव में, सामान्य था
पूजता था भूमि को, 'मां' मान कर वो
पैर रखता, था जमीं पर...
आत्मता... से, चिर
ऋणी... हो,
कुछ इस तरह... माथ पर
रखता सदा माटी को वो।
’प्रेम पग’ वैसा न देखा
आज तक,
सच कह रहा हूं..
आंचल से कोई झांकता हो बाल शिशु
मुझे बार बार, हंस रहा हो
किलकिलाता
मुदित मन
कुछ इस तरह से पैर अपने
भूमि पर..
वह रख रहा था।
पावन हुआ था
वर्षों पहले देखकर
वह पग कभी बचपन में अपने
आज भी मैं खुश बहुत हूँ, सोचकर
उस परम पग को...।
कौन सा पग तुम्हे सुंदर है लगा
मुझको बताना शाम तक ये।
जय प्रकाश मिश्र
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