Posts

Showing posts from April, 2025

कैसे उड़े आकाश में... छोड़ अपना देश हम।

प्रसंग: आज की लाइने मेरे जर्मनी पारगमन प्रस्थान पर लिखी गईं हैं। लखनऊ से दिल्ली प्रायः आता जाता रहता हूँ अतः उसे क्या लिखना पर उसके आगे मजेदार है अतः लिख रहा हूँ। श्री सर्वेश जी  (मेरे लिए गगन दुबे, छोटी बहन के पुत्र)  मेरे प्रिय भांजे आई आई टी दिल्ली में प्रोफेसर है। उनके वहीं अवंतिका स्टाफ क्वार्टर में रात्रि विश्राम हेतु रुका और प्रातः सात चालीस की महाद्वीपीय फ्लाइट पकड़ने के लिए ढाई बजे उठा फिर एयर पोर्ट जाना, और IIT परिसर में रात्रि में भी बच्चों का संचलन मुझे हतप्रभ कर गया। आप पुनश्च प्रस्थान का वृतांत पढ़ मजे लें। यह, सुबह तो थोड़ी अलग है,  भोर के पहले के पल हैं सो रही फैकल्टी सभी,  विक्रमशिला* में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की। अवंती* भी सो रही है,  चुप पड़ी है, पास में एक से ले पांच तक के  ब्लॉक के  परिवार की,  प्रोफेसरों की।  विक्रमशिला* व अवंती* स्टाफ क्वार्टर क्लस्टर्स है मार्ग सब सूने  पड़े हैं पर वीर हैं, रणधीर कुछ हैं जग रहे हैं,  सत्य का प्रण ले चले हैं,  गुच्छ में दो चार के हैं कुछ पढ़ कर चले हैं, कुछ पढ़ने चल...

आसमां तो एक... होगा,

पृष्ठभूमि: दुनियां एक ही है और मनुष्य भी एक ही हैं पर देश अनेक हैं। सभी देशों ने अपने अपने नागरिकों के साथ साथ धरती को भी समय के साथ सुंदर और विकसित किया है। सुख सुविधाएं, साज सफाई, विकास के मानक स्थापित किए हैं। मुझे आज यूरोप स्थित बर्लिन जाने का चांस मिला है, यहीं से, सोचता हूं!  क्या कुछ वहां अलग हो सकता है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें।  आसमां तो एक... होगा,  क्षितिज तक फैला हुआ सागर.... समेटे साथ में  क्या और ज्यादा वृहद होगा ?  रंग गहराता... हुआ  गंभीर.. गाढ़ापन लिए विश्रांत, स्थिर, आसमानी..  क्या... अधिक होगा।  केदार.. की धरती सरीखा सोखता हर तीक्ष्णता.. को  मानता हूं, यहां से  कुछ, स्वच्छ होगा, अच्छ होगा। पर,  हवा,  क्या अलग होगी?   शांति के "पर", पर चढ़ेगी मधुर होगी, और ज्यादा तरल होगी साफ होगी, पारदर्शी अधिक होगी संभार से दूषित कणों की  अपेक्षया...  पूर्णतः वह मुक्त होगी!  सुना है!   सफाई बहुत है!  एक भी मच्छर नहीं है,  उस जमीं पर!  और  शांति है,  निर्मल...

बन बहो संगीत तुम.. इस हृदय में।

बन... बहो  संगीत...  तुम... मेरे हृदय का  सूख... पाए,  प्रीति...,  पहले तुम भरो  एक गीत,  मेरे प्राण के अंतर जगत में। मुझको ले चलो  उस पार,  छोड़ो इन सभी का साथ, दे दो प्यार की सौगात,  तड़पे अब न मेरा गात। पाऊं मैं नई... दिन रात,  मुझको ले चलो उस पार.. नाविक। अब न छोड़ो हाथ,  मुझे ले डूब... जाओ  साथ,  चाहे पंक हो या गंग,  मेरे संग... तेरे अंग... सरिता सी मिलें... । सब रंग...  तुम मुझमें समाओ, आ लगो इस पृष्ठ के संहात,  सब कुछ भूल जाओ। नदी की तलहटी में  एक घर अपना बनाओ,  हो जहां विश्वास,  शीतल प्रेम की ही छांव,  खाली ही भलें हो हाथ,  फिर भी गुनगुनाओ,  मेरे तुम पास आओ। छुओ मुझको,  सरल मन से हमेशा,  बहूँ मैं बन पवन  उपवन तेरे  चहुंओर हर क्षन।  खिले  कोई कली  स्पर्श पाकर  सूर्य की पहली किरण सी  ही खिलूं मैं। शिशिर की कंपकंपाती शीति  मृदुलित रात्रि में  मैं उष्णता अनुभव करू तेरे  अधर की। कमलिनी सी खिली मैं आ मिलूं, महकती...

गीत... कोई क्या लिखे!

आज पाकिस्तान ने पहलगाम में धर्म पूछ कर सत्ताईस मासूम भारतीयों की निर्मम हत्याएं अपने भाड़े के और आई एस आई के लोगों के माध्यम से, करवाईं हैं। मन और आत्मा दोनों दुखी हैं। पड़ोसी है अपना ही है पर अपने कर्म से गिरा है इसे क्या बददुआ दूं। इसकी पर कुछ लाइने पढ़ें। दर्द है बहता हुआ आप भी कुछ देर डूबे। गीत... कोई क्या लिखे, कैसे लिखे,  प्यार का, स्नेह का, माधुर्य का जब जल रहा हो, हृदय ही,  वेदना की आग में,  झुलसता !  करतूत पर किसी दुष्ट के,  पर सोचता हूं,  यह! बद्दुआ भी, बुरी है और बीच इसके गुजरना,"संत्रास" है। संत्रास है यह, मन को मेरे..,  मन मेरा एक फूल.. है,  आरजू... का,  खुशी का..., सबके लिए। पर, सोचता हूं!  क्या सच यही था ?  यार उसने, उस जिक्र में! जो कह दिया था..."हम" नहीं "वह",  वह.. अलग है, स्वीकारता.. है,  बात को इस! राह.. अपनी, अलग.. ही,  वो.. जा रहा। घर में रहता  अपने.. खुश वो,  कितना सुखद था,  हम सभी का, पड़ोसी है!  प्रिय था मेरा। प्यार रहता, हम सभी मैं,  बीच में, छोटे बड़े का, अदब रखता। व...

आग से मत खेल, सुन!.....

पद-परिचय: पड़ोसी मुल्क अपना.. आए दिन अपनी नापाक हरकतों से बाज़ आता ही नहीं उसी पर कुछ लाइने आप को सुपुर्द करता हूँ। इसे लिखने का कोई मतलब नहीं है मात्र लोगों को जो हाल की क्रूर, अमानवीय घटना से आक्रोश में हैं उन्हें आराम मिले बस इतना ही है।  आग! से मत खेल,  सुन!.....  चिंगारियां मत फेंक, हम पर...  हमारे...  आंसियां पर, इस तरह ... बेखौफ होकर!  हवा का रुख.. देख तो! एक बार मुड़कर!  क्या कह रहा है, विश्व सारा,  ले किनारा, आज तुझसे, धिक्कार कर!  इसलिए, हम कह रहे हैं... आग से मत .....  देख अपना रूप!   कैसा हो गया है, यार तूं!  क्रूर, निर्मम..  अधम! कितना.. अमानवीय!  दूर होता मनुष्यता से,  शिकारी हो भिखारी, लगने लगा है। सब कह रहे हैं,  देता नहीं, कोई भीख भी.., तुमको यहां अब!  पूछता हूं! क्या ये सच है?  पर, मैने सुना.... है!  कमजोर... को, हर आदमी..  पालता है, जकातों पर,  दान पर.. कम से कम पेट... उसका, आखिरी तक!  क्या तूं  बदतर..! उनसे आगे, और भी है,  सुना है कहते हुए, तूं...

तंज कैसे तुझको न दूं..

पृष्ठभूमि: जब कहीं कोई वारदात होती है तो वहीं क्यों हुई! इस पर प्रश्न उठता ही है। पहलगाम की पूरी कारस्तानी जिसकी प्रायोजित है जगजाहिर है। पर वहां के लोगों की भी जिम्मेदारी आती है कि कोई आप के घर आया है, प्यार से, आपके लिए वह एक दायित्व भी है और अमानत भी, कि वह खुशी खुशी वापस जाए और यह सिलसिला बना रहे। लेकिन जब निरपराध आपके आस पास मारे जाएंगे तो आप पर लोग एक बारगी सोचेंगे। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें। तंज कैसे तुझको न दूं..  पीता रहूं मैं, रंज कब तक!   सोच तो!  वो.. घर है तेरा, बाग़बां है,  रहन.. तेरी, घेर.. तेरा। आखि़र यहीं रहता है तूं, हर शाम से ले.. हर, सबेरा!    कौन आया, बाहरी…  मैं जानता हूं,  की… तूं जानता है!  है छिपा कोई यहां, बंदूक ले  मैं जानता हूं, की.. तूं जानता है!  क्या डरा है, या मिला है  उन सभी से। कुछ बोल तो,  ये… चुप्पी तेरी.. तुझे लील लेगी हां, तुम्हे ही…, ये सोच ले.. एक दिन!   इसलिए कुछ बोल तो;  खा गई धरती, गगन ”उसे” पूछता हूं!  जान ले ली छब्बीस, जिसने  बेगुनाहों की अरे!  मै...

शांति में इस वक़्त की टंकार सुन!

पग एक: नाम क्यूं लूं! नापाक का! परिचय: कभी कभी जिनका जो काम नहीं वो कुछ ऐसा बोल जाता है वो भी सार्वजनिक जगह पर जो ऑफिसर ऑन ड्यूटी के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोगों की बात सुन रोना आता है। आखिर अभी कुछ दिन पहले हम एक थे। आप स्वस्थ कंपटीटर बनो अच्छी बात है। हमीं से पैदा और बाप को सलाह इज्जतदार आदमी की बात नहीं। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें। मैने अपना समय यह लिखकर बर्बाद किया है इसका मैं प्रायश्चित करता हूं। नाम क्यूं लूं! नापाक का!  बेहतर यही है  चुप रहूं,  पर क्या करूं!   बड़ा सेनानी कोई है,  एक "उसका" बाप... जिसका,  सच कह रहा हूं, पूछ लेना!  हिंदुस्तानी.. ही था! आज भी है,  कागजों में, दर्ज है,  नाम उसका,  इस देश में, "मिटवा इसे, तब बात कर!"  कहना उसे...। अये! .. औलाद है तूं.. यहीं का  रह जहां पर,  अच्छा लगे, तुझको जहां पर!  पर.. बाप से  तूं,  कर सके तो प्यार कर!   गर नहीं, तो ढंग से तो, बात कर!  तहजीब से रह!  इज्ज़त का अपनी ध्यान रख!  गर नहीं, तो कम से कम बाप... का तो ख्याल रख!...

जीवन.. जटिल है,

पृष्ठ-परिचय: जो मित्र वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के हैं, जानते होंगे कि जीवन की पहली सामग्री एमिनोएसिड होती है, उससे पुनः प्रोटीन, और प्रोटीन को कॉपी करने के लिए डी एन ए चाहिए होता है। इसके बाद कोशिका में ये सब बंद हों और ये सभी करोड़ों करोड़ में से, एक संभावना के चलते कही जीव बनते हैं। तब कहीं एक कोशिका में जीवनी शक्ति आती है। हममें से हर एक ऐसी बिलियन से अधिक कोशिकाओं के बने हैं। अतः समझें कि एक जीवन बनाने में नेचर कितना प्रयास करती है। जीवन बनना कितनी जटिल प्रक्रिया है। फिर भी हम यहां छोटी छोटी बातों में, पंथ, मजहब, जाति, आपसी विद्वेष में इसकी शक्ति नष्ट कर देते हैं। जबकि सारे शरीरो का निर्माण नियति अपने कार्य के लिए करती है, कि लोग उसको स्वस्थ माहौल देंगे और खुशहाल दुनियां बनाएंगे। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। जीवन.. जटिल है,  संभावना... है, लेश.. भर सं..घटित हो यह,  रूप ले,  विश्व के इस... पटल पर। केवल  विरलतम,  आस की... विश्वास की यह परिणिति.. है,  सफलतम..। जो, मिल गईं, सब...  उचित.. क्रम ले..   अनगिनत, अविरत...,  सतत...,  हर....

इंदीवर! कैसे पहचाने प्रभा सूर्य को।

भावभूमि: यह जीवन और विश्व एक रहस्य हमेश से रहे हैं जब की इतने दिनों से मनुष्य यहां का अधिपति अपने को ही मानता है। कुछ भी हो यह झीना परदा रहस्य का कोई हटा नहीं पाया और वह छुपा सर्वशक्तिमान आज भी वैसे ही रहस्य बना हुआ है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। कौन है  जो झिलमिलाते  व्योम से है देखता.. नीचे धरा को.. शांत मुख हो,  हर हृदय में झांकता!  इन बह रही चंचल  हवाओ का  नियंता  कौन  है। जो  बादलों की  सेज पर, दिन रात फिरता घूमता। देखकर  जिसको?   घटा श्रृंगार करती,  गहन बन में..,  कौन है?  जो डोर मन.... की बांधता!  किसके कहे पर  मोरनी...  खुश नाचती है,  विकट बन में.., कौन है जिसको पपीहा  प्राण भर के  पुकारता। किसके लिए  हर एक सरिता..  पार कर.. इस विजन बन को.. दौड़ती है.., रातदिन,  काटती है.. पत्थरों को..। किसके लिए  रसधार अपने कंठ में  भर भर सदा कोयलें हैं पुकारती...  अमराइयों की छांह में..। नील इंदीवर  प्रभा कैसे समझता  अरुण की है..., चांदन...

विवश.. खड़ा संसारी!

पृष्ठभूमि: श्री राधारानी के बृजधाम में, रमण-रेती स्थित, इस्कान मंदिर दर्शन का श्रीलाभ एक बार मुझे भी पुण्यफल वा भाग्यवश मिला। अहा! क्या संगीत! क्या दिव्य भाव में गायन! नर्तन चल रहा था। पूरा आंगन भक्तजन प्रेम-गाधि से अटा पड़ा था। सब विभोर हो, आत्मानंदित थे। तभी मैं क्या देखता हूं एक चौदह से पंद्रह वर्ष की सुंदर बालिका अदभुत-आभामयि, चुहुल-चुटुल, ताजे खिले नागचंपा पुष्प सी उज्जवल, कृष्णप्रेम में विह्वल, फुदकती हुई, श्रीकृष्णविग्रह की ओर पहाड़ी नदी सी वेग लिए चली। मैं देखता रह गया। पर! पहले दाऊ की प्रतिमा लगी थी, वेग के वशीभूत वह उन्हें अनदेखा करती आगे बढ़ गईं श्रीकृष्ण से सामना हुआ ही था कि उन्हें स्व.. मुक्तवस्त्र.. की याद आई, ततः श्रीदाऊ की दृष्टिक्षेप से बचने के लिए मुख पर ओढ़नी रखती हुई वह क्षण भर में कैसे कहां रहस्य सी गायब हो गई मैं विस्मित! खोजता रह गया। सारे भक्त श्रीकृष्णराधारस में विस्मरण हो, डूबे हुए थे और मैने साक्षात! उन सरला की कृपा पा ली हो ऐसी अनुभूति की। उसी पर कुछ लाइने पढ़ें, मां हमे बालक समझ अपनी कृपा से धन्य कर ही देती है।  मां... अति सरल,  बालकन्ह.... चीन्ही...

आदमी को, आदमी हो, मत सताओ।

पृष्ठभूमि: यह संसार ईश्वर की अद्वितीय कृति है। एक बार जरूर सोचें इसे आपके लिए ऐसा बनाए रखने में आपके नियंता को दिन-रात कितनी ऊर्जा और मेहनत करनी पड़ती होगी। आप एक परिवार की व्यवस्था में दुखी हो हार जाते हैं। इसलिए इस सृष्टि की कीमत समझें। सारे मानव एक ही ईश्वर की इच्छा से इस  पृथ्वीग्रह पर हैं। उन्हें मनुष्यों द्वारा अनेक वर्ग, जाति , धर्म में बांटने वाली चीजों पर विश्वास और व्यवहार वहीं तक करना चाहिए जहां तक मनुष्यता का मूल मर्म धूमिल न हो। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें मनन करे अच्छी लगें तो व्यवहार में लाएं। मेरी... ये दुनियां…  सच! हंसी… की पात्र है, हूं कहाँ…  इसमें.... खडा मैं !   बात… बस..., यह खास है। कुछ नही..  कर्तव्य,  या परिणाम है, हूं घिरा किनसे, कहां मैं  यह.... सोचने की बात है। है वही.... व्यवहार सुंदर!   छोर इक…, जो घिनौना…  नदी के… उस पार.. है। क्या यही… हैं ? “आज हम ग्लोबल* हुए हैं” देखता हूं, मैं खड़ा,  बालक सदृश!  कौन… है ? जो बांटता… है!   इस धरा… को, क्या.. मनुष्यों?   इसमें… भी, अपवाद… है।...

राधा! राधा! सकल पुकारीं हेरि परी कुंजन में

श्रीराधाप्रियाय श्रीकृष्णाय नमस्करोमि.. भावभूमि: प्रिय-मिलन की उत्कंठा नटखट-कृष्ण को, ब्रज की आभामयी वनराजि "श्रीराधाकुंज वीथि" तक खींच लाई। माधव नारी तो नहीं सखि-वेश का छद्म-आवरण बनाए अंगराग मुंह, कपोल, होष्ठ-अधर पर लेपित किए श्रीराधाजी को मिलने छद्मवेशी हो पहुंचे। वहां थोड़ी ही देर में भाग दौड़ से सब छद्म लेपन पुंछ गया। धूमिल होते ही सखियों ने उन्हें पहचान लिया। कान्हा शर्म से लाल हो गए। आप इसी पर कुछ लाइने पढ़, आनंद लें।  राधा-कुंज गए जब माधव, वेश बदल, नारी के, अंग सजाए, सुंदर, दृढ़तर.. छवि बदले, बाहर के। कोमल नयन पीयु.. रतनारे लता माधवी.. नीचे सैन करैं, ग्वालिन सों ऐसे.. बरनि.. बनै नहिं मोंसे।  नील सरोरूह.. आब.. लिए तन झांकै… इधर उधर से पीताम्बर की सारी फहरै.. ..  जस.., ध्वजा उडै.. गुंबद.. पे। खोजत-हेरत..., घड़ियां बीती  छुटै… रंग होठन के, अरे! लाल* कपोल..   सांवरे... हुई,   गे..  श्रीराधा.... के खोजन में। सखियां देखि, "नवेली" आई.. सखी.. "कौन" बाहर ते ?  छैल छबीली प्यारी.. इतनी!  धावति.. है कुंजन... में। रूप!  निहारि..,...

बह न जाऊं मैं कहीं अमृतमयी के साथ पाकर

पृष्ठभूमि: हर काव्य-विधा में, विद्याधरी-अमृतमयी मां "सरस्वती" के स्नेह सरिता का रस-विशेष रहता ही है। यह रस ही पाठकगण का सबकुछ है। जिसके लिए वह विद्या को सर्वप्रथम स्थान देता है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। बह न जाऊं!  मैं कहीं!  इन्ह..अमृतमयी! का साथ पाकर साथ इनके…!  इन शब्द की रसधार… में,  रसाल... से,  मीठी... अधिक हैं, अंतरों* में,  रस भरा, आनन्द ही है.. गर! सच... कहूं तो!  आंतरिक आस्वाद में, आह्लाद में। भाव: अमृतमयी मां शारदा, विद्या की देवि, लेखन की अधिष्ठात्री का सानिध्य अत्यंत मधुर, भावुक और हर फांक* में, भीतर से अप्रतिम आम से भी अधिक मीठा, स्वादिष्ट अप्रतिम आनंद है। मै इस रस में बह.. स्व विस्मृति सागर.. की ओर न चला जाऊं।  रूप के, लावण्य में, मुझे… खींचती है..,  तृप्ति के आस्वाद में..  यह, बलवती हैं!  समा.. लेती हैं, सभी कुछ,  शीतल.. घनी.. बदली सरीखी..  बादलों की छांव में,  एक सच कहूं तो....  स्वयं ही.. में। भाव: काव्यात्मकता में छंद, पदावलि, रचना आदि स्वयं इतना सौंदर्य-रस, रस-तरंग धारती हैं कि, चि...

बहुत.. दिनों बाद..

भाव झलक: जीवन प्रेम के बिना सूना है, यह प्रेम व्यापक हो, एकनिष्ठ न हो, तो अमृत है पर एकनिष्ठ प्रेम में भी अमृतांश होता ही है, और सामान्य जन इसी में इति श्री हो जाते है। वैसे तो यह व्यक्तिगत प्रेम,"राग के अंगराग" से पुता होता है पर जीवन को दिशा और स्पेस तो देता ही है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें, हम आगे बढ़ने और, और आगे बढ़ने की चाहत में प्रायः सच्चा प्रेम खो देते हैं। फिर एक पश्चाताप जुड़ा रहता है जीवन भर। यादें निखरती जाती हैं कौन कहता है धूमिल हो धूल में मिल जाती हैं। आप आगे पढ़ें.. बहुत.. दिनों बाद..  आज अचानक! उसकी.. याद!   जेहन में उभर आयी,  रहा नहीं गया,  जाने क्यूं, अपने आप!   ऐसे ही रेखाओं में उकरती,  झीना आकार लेती,  खुद ब खुद,  वही सुरख़ाबी सुंदर.. सूरत,  थोड़ा.. शरमाती  कुछ.. लजाती चुलबुल अंदाज,  चंचल...  हल्की गुलाबी रंगत!.. हंसती.. आंखे लिए सामने हंसी होठों में दबाए ताजा.. खिला, लाल गुलाब!  पकड़े, वो झिलमिल झिलमिल यादों में  फिसलने लगी। कैसे वह सूरत!  आज भी वैसे ही स्मृति में अक्स है,  बिल्...

एक तोता, पर कटा तुम्हे भेजता है नेह, अपना

भावभूमि: आजकल एक बहुत बड़ी समस्या देखने में पूरे समाज में आ रही है, लड़के हों या लड़कियां अच्छी नौकरी, या सफल रोजगार सेट होने के पूर्व या उच्चंत-शिक्षा आदि के चलते शादी ब्याह समय से नहीं कर रहे हैं अधेड़ हो चुके हैं। मां, पिता की बात मै सच कहता हूं आंतरिक बेदना से भर उत्साह हीन हो जीवन जी रहे हैं। बड़ी विकट स्थिति आ गई है। कोई जवाब किसी के पास नहीं है। नतीजा संतति के चलने की आशा खत्म और परिवार नगण्य हो रहा है। अगर सुधार न हुआ तो आगे का समय हिला देने वाला होगा। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आप केवल आनंदित हों, ईश्वर पर भरोसा रखें। एक तोता, पर कटा  तुम्हे भेजता है नेह, अपना धान की, इन बालियों के,  खेत से, झुक गईं है, पक गई हैं कह... रही हैं, आकर कोई  अब काट.. ले,  जल्दी.. इन्हें इस खेत से..। अन्यथा.. झर.. जाएंगी, गिर.. जाएंगी मिल.. जाएंगी, फिर.. ये सारी आज कल के बाद.., जल्दी मान मेरी,  साथ ही इस रेत.. में। स्वर्ण... सी  हैं,  रंग.. में, रूप.. में,  सुंदर… बहुत हैं गदरा.. गई हैं,  बादलों के प्रेम.. में।  हिल.. रही है, भार.. लेकर  तृप्ति.. ...