राधा! राधा! सकल पुकारीं हेरि परी कुंजन में
श्रीराधाप्रियाय श्रीकृष्णाय नमस्करोमि..
भावभूमि: प्रिय-मिलन की उत्कंठा नटखट-कृष्ण को, ब्रज की आभामयी वनराजि "श्रीराधाकुंज वीथि" तक खींच लाई। माधव नारी तो नहीं सखि-वेश का छद्म-आवरण बनाए अंगराग मुंह, कपोल, होष्ठ-अधर पर लेपित किए श्रीराधाजी को मिलने छद्मवेशी हो पहुंचे। वहां थोड़ी ही देर में भाग दौड़ से सब छद्म लेपन पुंछ गया। धूमिल होते ही सखियों ने उन्हें पहचान लिया। कान्हा शर्म से लाल हो गए। आप इसी पर कुछ लाइने पढ़, आनंद लें।
राधा-कुंज गए जब माधव,
वेश बदल, नारी के,
अंग सजाए, सुंदर, दृढ़तर..
छवि बदले, बाहर के।
कोमल नयन पीयु.. रतनारे
लता माधवी.. नीचे
सैन करैं, ग्वालिन सों ऐसे..
बरनि.. बनै नहिं मोंसे।
नील सरोरूह.. आब.. लिए तन
झांकै… इधर उधर से
पीताम्बर की सारी फहरै.. ..
जस.., ध्वजा उडै.. गुंबद.. पे।
खोजत-हेरत..., घड़ियां बीती
छुटै… रंग होठन के,
अरे! लाल* कपोल..
सांवरे... हुई, गे..
श्रीराधा.... के खोजन में।
सखियां देखि, "नवेली" आई..
सखी.. "कौन" बाहर ते ?
छैल छबीली प्यारी.. इतनी!
धावति.. है कुंजन... में।
रूप! निहारि..,
धन्य.. सब हुइ गईं...
फुस.. फुस.. भई, अंदर... से
राधा नागरि,
बावरिं, ना समझीँ
श्याम हैं इन सखियन में।
पोल कपोल....,
सब, खोलन.... लागे,
जब हाथ... लगे, सखियन... के।
श्याम बरन झांकन हैं, लागे
कथा कहैं नटखट के।
सखी सयानी, बूझि बूझि सब
बूझति हैं अँखियन में।
राधा! राधा! सकल पुकारीं
हेरि परी कुंजन में।
नैन चलावैं, सारी नटि नटि
कोउ ना बोलैं मुख सो,
पाई सांवरे.. बीच आपने...
खिलि गईं सब अंबुज सों।
एक सखी ललिता ने बूझी
अयि! "ये सखी !" कहां ते आई...
माधव समझ, परि गई, कुछ कुछ,
लाला... गए लज़ाई।
राधा के अंग गोरे गोरे,
माधव कालु... कलूटे...
रंग भेद कछु काम न आवै
प्रेम धारि सब भीगे।
माधव लज्जित देखी सखी सब
राधा को ले आईं
हालत अपनी देखि के माधव
मन में गये लज़ाई।
श्याम अंग रस.. फूटन लागा
हंसि परे, मोर.. कन्हाई।
जय प्रकाश मिश्र
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