बह न जाऊं मैं कहीं अमृतमयी के साथ पाकर
पृष्ठभूमि: हर काव्य-विधा में, विद्याधरी-अमृतमयी मां "सरस्वती" के स्नेह सरिता का रस-विशेष रहता ही है। यह रस ही पाठकगण का सबकुछ है। जिसके लिए वह विद्या को सर्वप्रथम स्थान देता है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें।
बह न जाऊं! मैं कहीं!
इन्ह..अमृतमयी! का साथ पाकर
साथ इनके…!
इन शब्द की रसधार… में,
रसाल... से,
मीठी... अधिक हैं, अंतरों* में,
रस भरा, आनन्द ही है..
गर! सच... कहूं तो!
आंतरिक आस्वाद में, आह्लाद में।
भाव: अमृतमयी मां शारदा, विद्या की देवि, लेखन की अधिष्ठात्री का सानिध्य अत्यंत मधुर, भावुक और हर फांक* में, भीतर से अप्रतिम आम से भी अधिक मीठा, स्वादिष्ट अप्रतिम आनंद है। मै इस रस में बह.. स्व विस्मृति सागर.. की ओर न चला जाऊं।
रूप के, लावण्य में, मुझे…
खींचती है..,
तृप्ति के आस्वाद में..
यह, बलवती हैं!
समा.. लेती हैं, सभी कुछ,
शीतल.. घनी.. बदली सरीखी..
बादलों की छांव में,
एक सच कहूं तो.... स्वयं ही.. में।
भाव: काव्यात्मकता में छंद, पदावलि, रचना आदि स्वयं इतना सौंदर्य-रस, रस-तरंग धारती हैं कि, चित अपने में खींच लेती है। शब्द की शक्ति आपको अंदर से तृप्ति की अंतिम सीमा तक अपनी शीतल छांव में हर ओर से विपरीत स्थिति में भी सराबोर कर लेती है।
ले डूबती.. हैं
आकंठ…, मुझको…
उन गिरिगुहा के द्वार तक…
हैं.., जंगलों बिच, निर्जन वनों में,
"बीच" में, पुलिन.. पर,
उस निर्झरी.. की गोद में, जो बह रही है,
आदि.. से
अविकल.. विकल..
कभी झरझरी, कभी झुरझुरी लेती हुई
सन्यस्त से, इन पत्थरों के पार्श्व में।
पतझरी.. के पात.. को
चूमती..
यह, बढ़ रही है,
पैर रखकर चल.. रही है
काल.. के कपाल पे निज, शताब्दियों से।
कैसे कहूं! कितना कहूं!
बेसुध.. विकल.. मैं हो न जाऊं,
साथ इसके.. बह न जाऊं ।
इन अमृतमयी! का साथ पाकर
साथ इनके…!
भाव: अच्छा काव्य आपको आपके भौतिक परिवेश और वातावरण से उठा कर अपने वर्णित स्थान पे जंगलों में, तीर्थ में, नदी तट, पुलिन यानी किनारों पर क्षण भर में घुमा देता है। आपको क्षण क्षण में विपरीत परिस्थितियों में ले जाती है समय का अतिक्रमण कर आप बूढ़े को कुछ देर के लिए जवान बना देती है।
शिथिल.. हैं
मणिबंध... सारे!
बंधन भी सारे शिथिल हैं!
हर अंग की, शोभा मनोहर, झर रही है!
कोमल.. नयन, कोमल अधर,
कोमल भृकुटि, भ्रूभंग.. हैं।
भाव: सौंदर्य, श्रृंगार, रसानुभूति की बीच आपको खड़ा कर बिह्वल कर देते हैं।
सहज, होकर उचकते हैं,
हिलकते हैं
ढील लेकर, पाश में बंध,
अनबंधे से, उछलते हैं
दृष्टि में, मन-बुद्धि.. में,
विवेक के संज्ञान में..
क्या… इस लिए?
मुझे.. बांधती है, “मेरी.. कविता”!
पाश.. में, निज बाहु.. के।
और मैं!
तिल.. तिल सा बढ़ता..
तिर.. रहा हूं!
आत्मा की सौम्य-मौनी झील में!
कर रहा हूं संतरण..!
मैं शांति में,
सहजता से, चढ़ रहा हूं
संयमो के बांध पे।
साथ मेरे...
वितस्ता.. यह बह रही है
शीतल, मधुर, अगाध,
यह जल राशि! लेकर
कल कल, सहज..
ध्यान पर चढ़, इस तरी.. में
तैरता हूं,
अकेले.. एकांत में।
चुप शांत.. हो, सुधि बेलि यह
निर्जन सवेरे..
इस! जिंदगी.. की धार में, हर राह में।
कहीं बह न जाऊं ।
अमृतमयी! का साथ पाकर
साथ इनके…! सोचता हूँ ।
जय प्रकाश मिश्र
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