बहुत.. दिनों बाद..

भाव झलक: जीवन प्रेम के बिना सूना है, यह प्रेम व्यापक हो, एकनिष्ठ न हो, तो अमृत है पर एकनिष्ठ प्रेम में भी अमृतांश होता ही है, और सामान्य जन इसी में इति श्री हो जाते है। वैसे तो यह व्यक्तिगत प्रेम,"राग के अंगराग" से पुता होता है पर जीवन को दिशा और स्पेस तो देता ही है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें, हम आगे बढ़ने और, और आगे बढ़ने की चाहत में प्रायः सच्चा प्रेम खो देते हैं। फिर एक पश्चाताप जुड़ा रहता है जीवन भर। यादें निखरती जाती हैं कौन कहता है धूमिल हो धूल में मिल जाती हैं। आप आगे पढ़ें..

बहुत.. दिनों बाद.. 

आज अचानक! उसकी.. याद!  

जेहन में उभर आयी, 

रहा नहीं गया, 

जाने क्यूं, अपने आप!  

ऐसे ही रेखाओं में उकरती, 

झीना आकार लेती, 

खुद ब खुद, 

वही

सुरख़ाबी सुंदर.. सूरत, 

थोड़ा.. शरमाती 

कुछ.. लजाती

चुलबुल अंदाज, 

चंचल... 

हल्की गुलाबी रंगत!..

हंसती.. आंखे लिए सामने

हंसी होठों में दबाए

ताजा.. खिला, लाल गुलाब! पकड़े, वो

झिलमिल झिलमिल यादों में 

फिसलने लगी।


कैसे वह सूरत! 

आज भी वैसे ही स्मृति में अक्स है, 

बिल्कुल.. वैसे ही.. 

अनछुई.. रेशम सी.., 

शिशिर की ललछुहीं नई

गुलाब की, गुलाबी पत्तियों पर पड़ी 

प्रातःकालीन, निर्मल स्वच्छ

झिलमिल, झिलमिल करती, 

हीरक मुक्ताकण की आभा में बनी 

ओस के बूंदों सी 

जगमग, जगमग करती, 

उतनी ही शांत, 

शीतल, संयत, 

"बाल कपोती" सी अद्भुत सुंदर! 

जेहन में..

जाने क्यूं? उभर आई! 


इतने दिनों बाद, लौट फिर आज

और मैं... खोल बैठा…

धुंआठी पड़ी, 

वो.. पुरानी, फिजिक्स की किताब.. 

निकाला फिर वही पुराना पड़ा गुलाब.! 

बीच से, मोटी किताब 

पर अब थ्री डाइमेंशन नहीं 

टू डाइमेंशनल हो गया था

एक डाइमेंशन खुद 

बीता समय, 

बन, सामने मेरे खड़ा था।

देखा.. गौर से 

ज्यादा गहराई.... से,

तवज्जो... से, अपनेपन... से

सच! वह गुलाब सुरखाब के पर सा 

कोमल लगा।

एक बार मैं फिर भीतर तक...

देने वाले के प्रति 

कृतज्ञता के भाव से आज!  

उसकी अनुपस्थिति में 

नम आंखों होता, विनत हुआ


सोचने लगा

कितना प्यारा! था 

तब यह सुर्ख-ए-गुलाब..! 

जब दिया था उसने, 

चाहत टपकती थी इसमें..

ख्वाहिशें और जिंदगी की उम्मीदें

कभी कभी अवसाद में 

धकेल देती हैं हमें।

छोड़ो ये बातें आज, ये सब 

बेमानी.. बेमतलब हैं।


अब.. यह और सुर्ख, ही नहीं, 

रक्तिम हो गया है, 

वक़्त के साथ, प्रीति.. में ही नहीं

प्रज्ञा और पश्चाताप की आग पर 

चढ़ तप गया है! 


उम्र के..  

आखिरी पड़ाव पर

बच्चों सा.., सचमुच, बच्चों सा

खुश होने का, तन्हाई में

घुनघुनाता, घुनघुना ही 

ये गुलाब बन गया है।


याद है! 

तब गुलाबी था, 

बोलता था, बात करता था,

कुछ कहता था, निजी संदेश.. 

सच कहता हूं, बिल्कुल!  

चुप! होकर, यह मुखर था।

बिन बोले, 

इसका हिय, हिय से बोलता था।

रख रखा है इसे

किताब में, आज भी मित्रों! 

रहता है वैसे ही

दिल के पास, आज भी मित्रों! 

दिखता है मुझे, बिल्कुल वैसे

देखा था इसे.. जैसे हाथों में 

उस के..।

अहा! ये वो गुलाब है, 

जो आज भी सूखा नहीं है, 

वही ताजा.. सुर्ख-ए-.....ब है।

जय प्रकाश मिश्र


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