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Showing posts from May, 2025

फांक, खट्टे आम की..

रसरंग: गर्मियों की छुट्टियां बच्चों की हो गई हैं। अपने बालपन के समय इनका इंतजार वर्षभर हमें रहता था। इन छुट्टियों को सुन आज भी मन वहीं चला जाता है और उन्हीं पुरानी स्मृतियों का एक झूला मेरे साथ इन लाइनों में आप झूल सकते हैं, चलें पढ़ा जाय। सोचते ही डूबता हूं,  उन दिनों में, आज.. भी मैं,  गली.. में, उन बगीचों.. में, घूमता हूं झपकती पलकों के नीचे,  एक क्षण में… निर्द्वंद होकर देखता हूँ, स्वयं को,  उन गर्मियों.. की, छुट्टियों.. में  बटोरता हूं,  ठीक वैसे आम.. पक्के,  चू रहे थे, पीले पीले..  क्या..? रस भरे थे,  मिट्टी लगे, महकते खुशबू लिए.. कुछ ख़टलुसे, कोपिल हुए  नार्मल से  अधिक मीठे.. मार डंडे, मार ढेले, डालियों पर,  कुछ बहुत ऊंचे, कुछ, थोड़ा नीचे। एक बच्चा सा बना मैं  फिर,    फिर.. रहा हूं,  फिर… वहीं लहरिया.. उस लहर लेते ताल पर,  मै तैरता हूं! आज भी मित्र चरवाहों के संग,  मैं पकड़ता हूं!  भागते भौरों को काले..., तैर कर!  पिछड़ जाता हूं, अभी भी  ठीक वैसे।  तरंगों से खेलता हूं.. भी...

नक्षत्र.. कह सकता इन्हें... हूं

पदभूमि परिचय: यह विश्व बाह्य चमचम करती फिनिशिंग पर फिदा है। समस्त जगत व्यापार के जड़ में इस सौंदर्य और रूप ने स्वयं को स्थापित कर लिया है। फिर भी सुख और सुखमय जीवन कैसे मिले इस पर कुछ लाइने पढ़ें और प्रसन्न हों। नक्षत्र.. कह सकता इन्हें... हूं इस धरा.. का,  पर, मित्र हो मेरे.., घने.. तुम!  तुम.. ही बताओ,  तारिका... से और.. सीमित,  इन्हें...,  मैं..., कैसे करूं। चंद्रिका... से  चमकते...इन रूप को परछाइयों... की आड़ में, क्यों कर... रखूं। दीखती...  हर चीज... है, सच!  अपने... जैसी, जैसी... है वो..;  पर!  चमचम, चमाचम, चमकती.. "हर" चीज में...  "जग".... दीखता है, छाया बन... वह  खुद..नहीं। चपल क्षण... क्षण... परछाइयां हैं, बन रहीं, हिल डुल रहीं  सतह पर बस, ..इठल करती, नृत्यती.., अनुपम, मनोरम क्यों रिझातीं हैं, मन मेरा ये   इस तरह.. मैं मानता हूँ, जानता हूं,  सत्यता.. वस्तु यह कुछ भी नहीं.. जो रूप सुंदर दिख रहा  इनका नहीं, पर क्या करूं मैं भ्रमित हूँ इस चक चकाचक चमक से अंदर कहीं। हर बात तेरी.. मानता हूं फिर से स...

ऐ मेरी बेखुदी ! तूं क्या करेगी !

रसरंग: सबमें एक विंदु होता है, थ्रेसोल्ड सीमा होती है सहने की, एडजस्ट करने की। किसी कारण से यदि यह पार हो जाती है तो उसके आगे फिर क्या जो बचती है उसे आवारगी कहें या दीवानगी ही होती है, जो मुक्त और बंधनहीन होकर, कैसी हो जाती है इसी पर कुछ लाइने पढ़ें आप आनंद मात्र लें। ऐ, मेरी बेखुदी.. बेरुखी, ऐ रुखसती! आवारगी!  तूं क्या करेगी ! अधिकतम.... !  छोड़ देगी सड़क पर....  मुझे... छटपटाता... अकेला...  तड़पता...,  अंजान पथ के मोड... पर..। और मेरी... मुश्किलों... को,  सामने.... रख,  मुस्कुराकर..., हठ! ... करेगी, तो...ये भी,  सुन!   इससे आगे...  और तेरी!  हैसियत क्या!  कर सके तूं..! दम... भरेगी, जीतने... का...  सोच ले...! क्यूं?  छोड़ दूं मैं, खुदकुशी...  कहने से तेरे... और तेरे.. साथ... हो लूं!  क्या... चाहती है, बता, तूं..!  चल आगे बढ़,  पकड़, मेरा हाथ..., मेरे.. साथ चल..। क्या... समझती है!  मैं..., तुझसे, .... डर.. गया खयाल... था, वो...     बहुत... पहले..  अरे! अब.., वह! मर.. ग...

इस बार..., बात अलग.. है अलेक्जेंडर प्लाट्ज

रंगभूमि: यहां सेंट्रल जर्मनी में सबसे चुहुल और देर रात तक गुलजार रहने वाली जगहों में "अलेक्जेंडर प्लाट्ज" अपना सानी नहीं रखता। विशाल फैला मैदान, रंगीन लाइटें, सजे धजे आधुनिक लोग, आकृष्ट करते युगल, विविध विविक्त वेश धारी युवक युवतियां, बाहर खुले में सरेआम रेस्तरां कुछ भी खाती पीती भीड़, गीत गाते, धुनों पर थिरकते लोग, लाइव प्रोग्राम देते.. सुंदर वेश में मांगने वाले सामने आधुनिक भिक्षापात्र रखे जगह जगह मिल जाएंगे। लोग लुफ्त लेते, घूमते, गुफ्तगू करते देर रात तक, गुनगुना माहौल बनाए रहते हैं। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। कुछ... है यहां,  यह...जगह ही कुछ ख़ास.. है मस्तमौला...  तुतुल.. करते, बालकों सी, उछलती..  बात.. करती, मुखर.. होती,  बोलती है.., चुलबुली.. है। नाचतीं.. हैं भावनाएं, यहां... पर  जो दबी... थीं,  अंतरों.. में रूप... लेती, हल्की हल्की  रेशमों.. सी चमकती..हैं।  निखरती हैं भीतर कहीं से,  निकलती..है, धार.. उत्सा...  स्वतः ही वह, बह रही हैं। उमगं भर भर,  नद हों कोई लहर लेती,  किनारों को  धकेलती, अडेल.. करती, ...

यह ओंकार है क्या?

सृष्टि का उद्भव, स्थिति और लय ओंकार से शुरू हो....इसी में समाप्त भी होता है। यह आदि काल से वेद वर्णित रहस्य ध्वनि शाश्वत है। जो विश्व रंजन से निरंजन में समाती रहती है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें, यदि कही कोई त्रुटि हो तो उन त्रुटियों के लिए मैं पूर्व क्षमाप्रार्थी हूँ। यह ”ॐ” क्या है?  स्वर… मात्र, संयोजित..कोई !   गुनगुनाता..,  भीतर से आता..  फैलता.. परिवेश में,  बाहर.. च भीतर… समा.. जाता। शक्ति.. का यह सार.. है!  क्या?  अद्भुत, अलौकिक!  क्या? परम उत्तम मंत्र है!  मैं सोचता हूं!  शब्द यह..!  ओंकार है क्या?  बस, नाद  है,  किसी लहर.. के संहात का?  पुकार… है?   स्पंदित.. हृदय की भावना का!  बहती… हुई..  आ मिल गईं, संगम सरीखी… सत्य कण की..धार का!  या वायु नद… की  उद्वेलना है, उर्ध्वता है,  मूलस्थान से  मणिबंध होते शिखर तक का। रस अनुभूति है, यह  प्राण की!   निकलती प्राणी के मुख से.. ध्यान की। ओंकार स्वर!   आखिर ये क्या हैं?  क्या ..ध्वनि हैं.. को...

एक नदी की तलहटी में, स्वप्न सा यह देश है!

पद-परिचय: यहां जर्मनी में स्प्री-वाल्ड एक क्षेत्र है जहां छठी शताब्दी से कई सदियों तक सर्ब लोगों ने अपने लिए स्प्री नदी के पार्श्व में विशेष विशाल एरिया में नहरों, जल धाराओं, जल वीथिक प्रणाली का निर्माण किया। जो आज मानव के लिए अद्भुत धरोहर है। परम शांत, मात्र जल और पक्षियों के स्वर यहां आप सुनेंगे अन्य कोई भी आवाज नहीं किनारे मदमस्त करने वाले नजारे खिले पुष्प, निकुंज, सुदीर्घ लंबे पेड़, गाढ़ी हरियाली, और सदियों पुराने लकड़ी के बने घर उनमें अनन्यतम सौंदर्यमयी मुस्कुरातीं मानव मूर्तियां, प्राकृतिक सौंदर्य में पद-चाप मिलातीं, रम्यता चहुंओर बिकेरती सूर्यप्रभा देखते ही बनती है इसी पर कुछ लाइने आप मित्रों के लिए। एक झलक के लिए आप चाहे तो इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं। https://drive.google.com/file/d/1dmnIbW_0PyQm6_unmDJKKMGrw3FlDtBf/view?usp=drivesdk यह..  विश्व.. है,  मनोहर.. है, खींचता.. है,  ओर अपनी,  मानता हूँ!  पर   बुलाए वह, मौन.. रहकर,  कोई जगह !  इस तरह...! गर्व भर... कर...,  यह तो गजब... है,  पर सत्य है..!  इस लिए ही लिख रहा ...

भर रहे बारूद... हैं हम, रख रहे हैं मिसाइलें...

यह कोई कविता नहीं, कष्ट भी नहीं, टीसता एक दर्द है। नित्य भीतर ही भीतर रिसता रहता है। बह गया... शब्द बन कर सज़ गया..। आप पढ़ें और खुश रहें। तुंग... है, क्या सोच... मेरी ?  या, गली... यह,  तुंग..है!  निकल पाया ही... नहीं मैं..  यार!  इस... माहौल से। धूप... निकली, ही नहीं... वो.. कह रहा है, दिन... है ये!   कुछ, रौशनी.. सी, फर्श.. पर है,  चेहरा, मुझे.. दिखता.. नहीं है। सोचता हूं!  रख दूं चीजें,  इनको लगा दूं, करीने से..  जिंदगी... के तख्त पर...अब;  बाँट दूं स्केल... पर, इनके मुताबिक* पर नाप.. मेरी गलत.. है,  या धर्म.. इनका बदलता..,  हर रोज है हैरान हूं ये देखकर!  स्केल अंटती ही नहीं है, यार  इन पर,  क्या करूं ?  चल छोड़, अब हम...,  चुप रहेंगे,  हर रोज, मैं..., ये... सोचता हूं ;  पर आंख... हैं, मैं... क्या.. करूं!  चल.. सकूं, इसलिए... ही  खोलता हूं, देखता हूं.. देख तूं... भी,  यार मेरे,  आंधियां हैं.., बवंडर... हैं, दुर्दशा है.. बह.. रही, हर तरफ.. ही चुप रहूं मैं किस त...

स्विट्जर लैंड का मासूम सौंदर्य

पृष्ठ परिचय: कुछ जगहों पर नेचर नैसर्गिक सौंदर्य में विद्यमान रहती है स्विट्जरलैंड उनमें से एक है। आप इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें। वहां के लोगों का और उनके परिवेश का एक हल्का सा चित्र आप के लिए शब्दों में प्रस्तुत है। रसीले.. होठ हैं,  इनके, मधुर.., हल्के…  गुलाबी..,  दूर हैं, हर..  प्रसाधन… से,  मूल रंगत में रंगे.. हैं,  रक्त के ही..संचरण… से,  मधुरिमा ले, खिल रहे हैं, पुष्प जैसे।  प्योर हैं,  झर.. रहे.. सौंदर्य हैं, मुस्कुराहट.. से अटे.. हैं!  बहुत.. धीमे, हंस… रहे है छुपाए हैं राज कोई! लग रहा बस!…  बोलने.. को, खोलने को राज,ये बेसब्र हैं।  नुकीली  है नाक.. सुतवां..  और पतली..नाली सरीखे  खिंच.. रही है, सुरीली... सी.. संगमर-मरी, मूर्तियाँ हैं, मोम की कोमल, मुलायम, रस भरी सी बोलतीं..हैं, डोलतीं..हैं,  समीर.. रस, बन  घोलती हैं.. शीतली  सच!   सुखद शीतल.. सूर्य के पहली प्रभा सी..   सुनहली…, बेदाग, उज्वल। कंट्रास्ट!  कंट्रास्ट..कैसा गजब.. है,  सुरमई सा..  केशुओं....

ऐ खुदा तूं ही बचा, इस नाकाबिले नाचीज़ से।

एक "बच्चा"....  पूछता है..?  प्रश्न कैसे...  संजीदगी के,  नादां... अभी.. है,  समय की वह नब्ज़ को, धार को  आज भी.. इतनी उमर में..  पहचानता..., बिल्कुल नहीं। उम्र से क्या ?  अपना.. पराया  वह आज... भी..... ठीक... से,  सच कह रहा हूं..!   जानता... बिल्कुल नहीं..। खिलौनों.. को पूछता है!  आदमी... को छोड़कर.... !  कितने हुए... गुम!  खेलना और रन बनाना  इसे है नहीं, कह दिया है पाक ने चल बैठ चुप! तूं बैट गिन!  बेलौस होकर घूमता... है, देश में, सोचता है..  लोग भी नादान हैं, उसकी तरह ही। अरे खेल.. सारा हो गया जिसे पिटना था वो.. पिट गया इसकी... तुझे, खुशी... नहीं..!  रो रहा है बैट लेकर!  खिलौनों को गिन रहा है!  फिर खरीदेंगे खिलौने,  अब हम बनाएंगे खिलौने,:  देखना इस बार खेला... कैसे पिटेगा.. यार ... और उसके चंगे मंगे। फिक्र तुझको है नहीं  जान की,  इस देश के, उन लोग की  जो रोज मरते... आ रहे हैं, दशकों... से,  कश्मीर.. में, मुंबई.. में, इस देश में हर जगह ही । सामान.. को...

आ बनाएं जिंदगी को और सुंदर

प्यार के रंग  वह!  पग प्रथम  था,  प्रेम का,  तुम मिल गए, जब!  साथिया...  इस  डगर पर... झिलमिलातीं उर्मियां..  जब उठ रही थीं, हृदय  पट.. पर...! किशोर से...  उस  बयस.. लेते मोड.. पर..! सच!  छोर पर...  जब  छूटते.... हैं..  टूटते.... हैं, बंध..सबके जिंदगी... में, हल्के.. हल्के.. संबंध... के...  जन्म से... जो,  बंधे.. थे,  इस देह के...परिवार संग। थाम ली,  पतवार तूने...,  मेरे... नाव की,  उस... बहती नदी... में,  दीखता... जब था नहीं,  कुछ भी मुझे,  और आगे..., सच मुझे...  बह..  ये जाती...  किस..  किनारे...  थाँव... पाती,  या न पाती...  तरसती क्या, बूंद भर  बरसात को!   सोचती हूँ..!  या  ये बहती, चली जाती.. उम्र भर ले साथ में...  बस सदाएं,  इस जहां में। पर!  मिल गए तुम,  किस तरह.. से  राह में... उस मोड पर... और खिल.. गए हैं  पुष्प... मुझमें .. महक के.. सौरभ.. लिए। देख ना,  आ गए है...

आएं मिलें बर्लिन से... थोड़ा..

स्प्री नदी और बर्लिन का इतिहास सांकलों में बंद... है, और रो... रही है कर्म हैं, कुछ शेष, अब भी इसलिए  यह, बह... रही है किनारों पर, कंधों पर... लिए   इतिहास... इस बर्लिन... शहर का  आज भी, यह ढो रही है,  नदी है, ये...  जर्मनी की, "स्प्री"... नदी है। जाने न कितने...  राज... इसके जानती.. है। देखा.. है इसने..., ढोया या इसने..,  सीने पे अपने...  नाज़ियों... को,  उस कौम को, हिटलरों... को इस पार से उस पार...!  कितनी बार...!  पहुंचाया है इसने..  अनमने हांफते... उस खौफ से। हिटलरी सामान को... उन कैंपों तक.. दफ्न हैं, जो आज भी  इतिहास में  बस संस्मरण तक....। पर सत्य है ये, वे एक दिन सच आदमी थे,  देख आया हूँ मैं, खुद, तस्वीर... उनकी आज जो तस्वीर बन.. दीवारों पर टंगे.. थे। समृद्ध थे, शिक्षित भी थे, वे गुणी थे पुरोधा थे विज्ञान के  बस जाति से, वे यहूदी थे एक कमरा कितना छोटा, सिंकचों से बंद है एक रोशनदान है बस शीर्ष पर वो भी अधिकतर बंद है.. आमने और सामने दो डोर हैं बहुत पतले नीचे रखा, भूषा भरा, एक टाट है लेटने को और कु...

आप के नाम.. रंगीन... पेरिस की शाम

परिभूमि: कुछ यादें अपने में यथार्थ समेटे, बिजलियों सी तो नहीं, मन-अंधेरे में जुगनुओं सी चमकती रहती हैं। उन्हें लिख देने का मन करता है। उन्हीं में से, यह पेरिस में बिताई कई शामों में से, एक.. आपके लिए प्रस्तुत है। रौशनी... रंगीन है... बिखरी.. पड़ी है, सड़क ऊपर..  पैदल पथों पर...  लालिमा लेती..., गुलाबी हो रही है, टावरों पर...टंगी हैं,  उतने ऊंचे...,  एक भी, सीधी नहीं है,  हर तरफ.. यह  "सूक्ष्म" सी,  झिलमिलाती, बदलती..  रंग कैसी...  मुझको लगा, एल. ई. डी. लगी हैं।  एक.. सिलिंडर  रखा हुआ है..  ग्लास का...  विकेरता है, रश्मियां.. हर रंग की हर शिखर पर, हर टावरों पर.. लाइटों का... चमचमाता शाम है पेरिस की ये, दिल... से सजी है। चमचमाती गाड़ियां.. हेचबैक ही हैं  रेस्तरां.. बाहर सजे.. हैं,  कुर्सियां बाहर.. रखी हैं सामने से ट्राम.., बस... सब जा रहे हैं पक्के बने..  फुटपाथ के  किनारों... तक लोग बैठे.. आराम से,  पेय..सा  कुछ पी रहे हैं,  हल्का फुल्का खा रहे हैं। पर... देर तक,  बैठे हुए,  एक ...

वह, मां.. थी, तेरी...

पग एक: मां  नीर भरे  नयनों... में अपने.. पाल.. रही, इंदीवर* सपने... संग में तेरे..., बैठ.. अकेले,  कई सुनहरे.. कई रुपहले.. आंगन में  वह... मन के अपने। * सुंदर, सुखमय, खुशियों भरे मान मेरी!   वह, मां.. थी, तेरी... विह्वल... बैठी, देखा करती..   चांद सितारे... कल के सारे.. प्रतिपल तुझमें, बुनती... रहती  सपनीले सपने वह अपने प्रियतर..., मधुतर.. अपने सपने..  । भर भर...  मन में, पाला तुझको...  आशाओं के, महल, दुमहले.. आकांक्षा...  की साख पे चढ़ के सांझ सबेरे, सुख में.. दुख में...  तकलीफों को,  तकलीफों से काटा उसने...। देख तुझे,  झर जाती आंखे...  चुप.. चुप.. उसकी,  कहतीं थी कुछ.. निपट अकेले.. मन में अपने... पुष्प-पंखुरी, सौरभ के वातायन से वह देखा करती,  निशि दिन! तुझमें.. सपने.. अपने ।  देख...रही है,  खुद... को तुझमें,  लहर ले रही फूलों सी वह,  सिहर... रही है, मन में... अपने। मां है वह, तेरी,  प्यार भरी किलकारी का  उद्बोधन सुनके.. चिहुंक खड़ी... है, अकन रही... है,  ला...

दुनियां दारी है ये, समझ इसको..

दुनियां का हर प्राणी और हर वस्तु निश्चित ही एक सा ही मूल्यवान और महत्वपूर्ण है बस उसकी जगह पर उसे प्रयोग करने की कला आनी चाहिए। दुनियादारी और सारा व्यापार च समृद्धि इसी कला का निरूपण है, खेल है। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें, आनंद लें। चीजें.. कितनी, कहां..,  रखी... हैं, कैसे..? यही दुनियां है,  आ बैठ..!  मेरे साथ, समझ इसको..। स्टोर है, ये जहां..!  "सामान" भरा रखा है, कीमत कम..!  लगती है तुझे..  "नजर" पैदा कर..  तेरे ऊपर है, "बढ़ा" इसको...। रंग "सारे" अलबेले हैं,  चमकीले, हल्के, भारी.. होते,  देख उन्हीं में   कितने हैं.. कैसे.. गाढ़े, फीके...। बोरों में.. भरे रखे हैं,  इफरात में फैले... हैं प्रकृति में, पौधों में,  यहां की,  वनस्पतियों में.. चारों तरफ तेरे।   इस विशाल गठरी से.. एक रेख! निकाल, बहुत पतली...  बिल्कुल काली.. सुन..!  बस! रख दे...  उसे किसी अच्छे से, सुंदर से  मुस्कुराते, नयनों पे...  फिर देख.. "दुनियावी मूल्य"  कैसे बढ़ता है उन आंखों का, कैसे बिकता है  वो  काला, जो बिल...