फांक, खट्टे आम की..
रसरंग: गर्मियों की छुट्टियां बच्चों की हो गई हैं। अपने बालपन के समय इनका इंतजार वर्षभर हमें रहता था। इन छुट्टियों को सुन आज भी मन वहीं चला जाता है और उन्हीं पुरानी स्मृतियों का एक झूला मेरे साथ इन लाइनों में आप झूल सकते हैं, चलें पढ़ा जाय। सोचते ही डूबता हूं, उन दिनों में, आज.. भी मैं, गली.. में, उन बगीचों.. में, घूमता हूं झपकती पलकों के नीचे, एक क्षण में… निर्द्वंद होकर देखता हूँ, स्वयं को, उन गर्मियों.. की, छुट्टियों.. में बटोरता हूं, ठीक वैसे आम.. पक्के, चू रहे थे, पीले पीले.. क्या..? रस भरे थे, मिट्टी लगे, महकते खुशबू लिए.. कुछ ख़टलुसे, कोपिल हुए नार्मल से अधिक मीठे.. मार डंडे, मार ढेले, डालियों पर, कुछ बहुत ऊंचे, कुछ, थोड़ा नीचे। एक बच्चा सा बना मैं फिर, फिर.. रहा हूं, फिर… वहीं लहरिया.. उस लहर लेते ताल पर, मै तैरता हूं! आज भी मित्र चरवाहों के संग, मैं पकड़ता हूं! भागते भौरों को काले..., तैर कर! पिछड़ जाता हूं, अभी भी ठीक वैसे। तरंगों से खेलता हूं.. भी...