आ बनाएं जिंदगी को और सुंदर

प्यार के रंग 

वह! 

पग प्रथम 

था, प्रेम का, 

तुम मिल गए, जब! 

साथिया... इस डगर पर...

झिलमिलातीं उर्मियां.. जब उठ रही थीं,

हृदय 

पट.. पर...!

किशोर से... उस 

बयस.. लेते मोड.. पर..!

सच! 

छोर पर... 

जब छूटते.... हैं.. 

टूटते.... हैं, बंध..सबके

जिंदगी... में, हल्के.. हल्के..

संबंध... के... 

जन्म से... जो, 

बंधे.. थे, इस देह के...परिवार संग।


थाम ली, पतवार तूने..., 

मेरे... नाव की, 

उस... बहती नदी... में, 

दीखता... जब था नहीं, 

कुछ भी मुझे, 

और आगे..., सच मुझे... 

बह.. 

ये जाती... 

किस.. किनारे... 

थाँव... पाती, या न पाती... 

तरसती क्या, बूंद भर बरसात को!  

सोचती हूँ..! 

या 

ये बहती, चली जाती.. उम्र भर

ले साथ में... 

बस सदाएं, इस जहां में।


पर! 

मिल गए तुम, 

किस तरह.. से 

राह में... उस मोड पर...

और खिल.. गए हैं 

पुष्प... मुझमें ..

महक के.. सौरभ.. लिए।


देख ना, 

आ गए है आज कैसे, हिल रहे हैं

पुष्प यह, लहर खाते, महकते

मेरी डालियों पर, देख तो ? 

नयन से, तेरे नयन, जब मिल गए हैं।


सजन.. दिन कितने हुए..

तुम ही बताओ? 

प्यार की इस नाव में बैठे हुए,

कितने किनारे.. 

हम छुए तेरे साथ रे...! 

थोड़े गिनाओ....

पर! लग रहा, हम आज ही.. 

हैं... 

मिल रहे।

बार पहली, बार.. कैसे इस जगह पे..।


चल और, 

थोड़ा साथ..., चल! 

नदिया के तूं, उस पार चल..! 

मैं चाहती.. हूं.... 

देख आऊं परिधि.. इसकी, सुनहरी.., 

थाम, मेरा हाथ, मेरे साथ चल..। 


आ मिलें हम.. 

नदी.. बन, 

संगम.. बनाएं, शुभ्र सुंदर...

तीर्थ, कोई... साथ मिल कर! 

इस जिंदगी को, प्यार का, तीरथ.. बनाए

अनुकरण, सब कर सकें.. 

कुछ.. ऐसा करे हम...

प्यार के, जलते हुए.. 

एक... दो... दीपक जलाएं।

जो जगमगाए इस धरा पर.. महक जाएं।

वो भी खिलें अपने समय पर..

इस धरा पर...

सहज हो जीवन बिताएं।

जय प्रकाश मिश्र

संप्रति: बर्लिन (लखनऊ)

दिनांक:20.5.25

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