नक्षत्र.. कह सकता इन्हें... हूं

पदभूमि परिचय: यह विश्व बाह्य चमचम करती फिनिशिंग पर फिदा है। समस्त जगत व्यापार के जड़ में इस सौंदर्य और रूप ने स्वयं को स्थापित कर लिया है। फिर भी सुख और सुखमय जीवन कैसे मिले इस पर कुछ लाइने पढ़ें और प्रसन्न हों।

नक्षत्र.. कह सकता इन्हें... हूं

इस धरा.. का, 

पर, मित्र हो मेरे.., घने.. तुम! 

तुम.. ही बताओ, 

तारिका... से और.. सीमित, 

इन्हें...,  मैं..., कैसे करूं।

चंद्रिका... से 

चमकते...इन रूप को

परछाइयों... की आड़ में, क्यों कर... रखूं।


दीखती... 

हर चीज... है, सच! 

अपने... जैसी, जैसी... है वो..; 

पर! 

चमचम, चमाचम, चमकती..

"हर" चीज में... 

"जग".... दीखता है, छाया बन...

वह  खुद..नहीं।

चपल क्षण... क्षण...

परछाइयां हैं, बन रहीं, हिल डुल रहीं 

सतह पर बस, ..इठल करती,

नृत्यती.., अनुपम, मनोरम

क्यों रिझातीं हैं, मन मेरा ये  

इस तरह..

मैं मानता हूँ, जानता हूं, 

सत्यता.. वस्तु यह कुछ भी नहीं..

जो रूप सुंदर दिख रहा 

इनका नहीं,

पर क्या करूं मैं भ्रमित हूँ

इस चक चकाचक चमक से अंदर कहीं।

हर बात तेरी.. मानता हूं

फिर से सुनो.. मैं कह.. रहा हूं

तेरी... मेरी... हर तरफ...की, 

परिच्छाया ही हैं ये.. जो दिख रही है..

खुद नहीं ये, वस्तु मुझको दिख रही है, 

एक पल... को, नजर इस... पर 

मेरी टिकती... ही नहीं है

पर! देखते...., सब खड़े... हैं, 

संग मेरे ही

धुरंधर, पारखी, विरत जन इस जगत के, 

मूर्ख... से, 

मैं सोचता... हूं, क्यों, इधर... ही

चमकती इन वस्तुओं के, 

प्राप्तियों के, सिद्धियों के, 

मानवों के, रत्न के।


संसार.. है यह, 

सुहाना.. है, देखने.. में...

दृष्टि... की ही, तृप्ति... का सब खेल है,

व्यापार है सब.. 

चमक का, लावण्य का,

तुम कहां! हम कहां! इसमें यहां..

मेला है मित्रों, मात्र यह, बस.. 

एक भ्रम का।


इस लिए तो कह रहा हूँ, 

सलोना दीपक जलाओ, अपने घर का

अपनी, रौशनी... के पास बैठो, 

काम की बस चीज... देखो, 

मन... लगाओ, अपने घर... में, 

सुख से जिओ, जिंदगी... 

सुखमय बिताओ।

नक्षत्र होंगे, धरा पर, 

तारिकाएं बहुत होंगी

पर, कुछ नहीं हैं, रूप ये, 

भावनाएं एक होंगी

जय प्रकाश मिश्र




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