भर रहे बारूद... हैं हम, रख रहे हैं मिसाइलें...
यह कोई कविता नहीं, कष्ट भी नहीं, टीसता एक दर्द है। नित्य भीतर ही भीतर रिसता रहता है। बह गया... शब्द बन कर सज़ गया..। आप पढ़ें और खुश रहें।
तुंग... है, क्या सोच... मेरी ?
या, गली... यह, तुंग..है!
निकल पाया ही... नहीं मैं..
यार! इस... माहौल से।
धूप... निकली, ही नहीं...
वो.. कह रहा है, दिन... है ये!
कुछ, रौशनी.. सी, फर्श.. पर है,
चेहरा, मुझे.. दिखता.. नहीं है।
सोचता हूं! रख दूं चीजें,
इनको लगा दूं, करीने से..
जिंदगी... के तख्त पर...अब;
बाँट दूं स्केल... पर, इनके मुताबिक*
पर नाप.. मेरी गलत.. है,
या धर्म.. इनका बदलता.., हर रोज है
हैरान हूं ये देखकर!
स्केल अंटती ही नहीं है, यार
इन पर, क्या करूं ?
चल छोड़, अब हम...,
चुप रहेंगे,
हर रोज, मैं..., ये... सोचता हूं ;
पर आंख... हैं, मैं...क्या.. करूं!
चल.. सकूं, इसलिए... ही
खोलता हूं, देखता हूं..
देख तूं... भी,
यार मेरे,
आंधियां हैं.., बवंडर... हैं,
दुर्दशा है..बह.. रही, हर तरफ.. ही
चुप रहूं मैं किस तरह!
हर दिन.. यही तो! सोचता हूं।
छोड़ दूं, ये कर्म सारे...
"अरविंद-आश्रम" में चलूं...
बैठ ऑरोविल.. में, मैं... भी,
एक सावित्री*... लिखूं
परा..मानव, में रहूं,
छोड़ मानव-अधोगति... को,
तूं ही बता, मैं क्या करूं?
हैं कहां.. हम आ गए!
दुख... के बादल छा... गए..
बादलों... में,
और.. ऊपर, सुदूर, उस.. आकाश में।
भर रहे बारूद... हैं हम,
रख रहे हैं मिसाइलें...
मारने को इन सभी को...,
बचाने को इन सभी से..
डोम-गोल्डन बना रहे... !
कौन है हम?
आदमी हैं ! राक्षस हैं !
विश्वास हममें है नहीं, प्यार हममें है नहीं
खौफ हैं हम खा रहे, एक दूसरे से..
कैसे जिएंगे...? ये प्यारे.. बच्चे!
अरे! सबके...
भूलकर..हम ! छोड़कर सब !
बच्चों पे अपने, आ गए..।
हम आदमी हैं,
दुश्मन हैं किसके?
बैठ सोचो... आदमी के, और किसके
और डर रहे हैं आदमी से..।
एक होना था हमे, हम लड़ रहे हैं
खुद ही में..
समस्या की जड़ कहां है..
क्या कोई "व्यापार" है...
या कोई वह "वाद" है,
जो डंस रहा है, आदमी को
वो चैन से, कैसे रहे।
सोचना तुम.. बहुत गहरे...
जय प्रकाश मिश्र
*गुण धर्म अनुसार
* श्री अरविंद की एक अतीव आध्यात्मिक बुक
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