ऐ खुदा तूं ही बचा, इस नाकाबिले नाचीज़ से।

एक "बच्चा".... 

पूछता है..?  प्रश्न कैसे... 

संजीदगी के, 

नादां... अभी.. है, 

समय की वह नब्ज़ को, धार को 

आज भी.. इतनी उमर में.. 

पहचानता..., बिल्कुल नहीं।


उम्र से क्या ? 

अपना.. पराया 

वह आज... भी..... ठीक... से, 

सच कह रहा हूं..!  

जानता... बिल्कुल नहीं..।


खिलौनों.. को पूछता है! 

आदमी... को छोड़कर.... ! 

कितने हुए... गुम! 

खेलना और रन बनाना 

इसे है नहीं, कह दिया है पाक ने

चल बैठ चुप! तूं बैट गिन! 

बेलौस होकर घूमता... है, देश में,

सोचता है.. 

लोग भी नादान हैं, उसकी तरह ही।


अरे खेल.. सारा हो गया

जिसे पिटना था वो.. पिट गया

इसकी... तुझे, खुशी... नहीं..! 

रो रहा है बैट लेकर!  खिलौनों को गिन रहा है! 

फिर खरीदेंगे खिलौने, 

अब हम बनाएंगे खिलौने,: 

देखना इस बार खेला...

कैसे पिटेगा.. यार ... और उसके चंगे मंगे।


फिक्र तुझको है नहीं 

जान की, 

इस देश के, उन लोग की 

जो रोज मरते... आ रहे हैं, दशकों... से, 

कश्मीर.. में, मुंबई.. में, इस देश में हर जगह ही ।


सामान.. को 

वह तौलता... है 

आदमी... की जान से...

मैं क्यों कहूं वह  मू.....  है,  "वह"..ना.... है, 

पर्याप्त है यह... 

समझने को सबके लिए।


फिक्र उसको है बची सामान.. की बस

क्या गिरा.. था, क्या बचा.. है,

क्यों जानता वह.., 

यह.. नहीं.. 

हर खेल में.., सामान छोटा..ही रहेगा

खेल से.., आदमी से.. अभी, और आगे..। 

सामान था वह खेल.. का, 

खेला.. गया..., 

खेल.. पूरा... हो गया

रखा रहे वह.. किसलिए, 

शोकेस में..।

क्या इसलिए 

लाए... थे उसको..., 

एक दिन बस फेंक दें, 

बेकार वर्जन हो गया अब! यह समझ कर! 


सोचता हूं 

यह फिर... रहा है

इस मुल्क में... चाहत... लिए 

इस देश के सरताज... की!  

ऐ खुदा!  

तूं ही... बचा, 

इस नाकाबिले.. नाचीज़... से।

जय प्रकाश मिश्र


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