इस बार..., बात अलग.. है अलेक्जेंडर प्लाट्ज

रंगभूमि: यहां सेंट्रल जर्मनी में सबसे चुहुल और देर रात तक गुलजार रहने वाली जगहों में "अलेक्जेंडर प्लाट्ज" अपना सानी नहीं रखता। विशाल फैला मैदान, रंगीन लाइटें, सजे धजे आधुनिक लोग, आकृष्ट करते युगल, विविध विविक्त वेश धारी युवक युवतियां, बाहर खुले में सरेआम रेस्तरां कुछ भी खाती पीती भीड़, गीत गाते, धुनों पर थिरकते लोग, लाइव प्रोग्राम देते.. सुंदर वेश में मांगने वाले सामने आधुनिक भिक्षापात्र रखे जगह जगह मिल जाएंगे। लोग लुफ्त लेते, घूमते, गुफ्तगू करते देर रात तक, गुनगुना माहौल बनाए रहते हैं। इसी पर कुछ लाइने पढ़ें और आनंद लें।

कुछ... है यहां, 

यह...जगह ही कुछ ख़ास.. है

मस्तमौला... 

तुतुल.. करते, बालकों सी, उछलती.. 

बात.. करती, मुखर.. होती, 

बोलती है.., चुलबुली.. है।


नाचतीं.. हैं भावनाएं, यहां... पर 

जो दबी... थीं, 

अंतरों.. में

रूप... लेती, हल्की हल्की 

रेशमों.. सी चमकती..हैं। 

निखरती हैं

भीतर कहीं से, 

निकलती..है, धार.. उत्सा... 

स्वतः ही वह, बह रही हैं।


उमगं भर भर, 

नद हों कोई लहर लेती, 

किनारों को 

धकेलती, अडेल.. करती, 

एक करती चाहतों.. से, 

मेल करती, 

उम्र के धागों को खिंचतीं... 

और आगे, सहजता से..

आकार... देती।


बेशुमार, 

तराशी... किन्हीं  मूर्तियों... सी, 

उम्र के इन पुलक लेती, 

पुतलियों... सी 

स्निग्धता, तरलता भर 

अंग में हर

विह्वला... ये, किसलिए 

यहां, घूमतीं।


सिरफिरीं...., 

चुप.. आज तक थीं, 

गुम.. ही थीं, भीतर..दबीं थीं,

समय के इस ढेर में, 

उम्र के नीचे छुपीं थीं। 

मुखर.. हैं, यहां...., 

पा रहा हूं

कुछ हो रहा है, सभी को.. 

आनंदित हैं सारे! ऐसे क्यूं! 


राज क्या है? 

खोजता... हूं, ढूंढता... हूँ! 

पार्श्वता.. है, 

माहौल.. है, ये रूप.. हैं । 

सितारे.. ये जमी के हैं, चमकते..

कारण ये क्या है? 

संगीत... है! बजता हुआ 

या लाइटें, रंगीन हैं! 

फैला... हुआ ये दूर तक, 

मुक्त... वातायन भरा क्या प्रांगण है!  

या दीखती ये भीड़ है! 

ठंड है, ये शीतली है, 

मधुरता भर.. बह रही है... 

पास में घेरे हुए, स्प्री.. नदी है।

पर! सोचता हूँ...

सब मिले हैं एक में.. कारण यही है।


लाइटें..., 

रंगीन कैसी..!  फैली हुई हैं... 

दूर तक.., 

खुलापन है, हवाओं में, 

बेखुदी हर ओर है..

एक झोंका हवा का, 

सर्द थोड़ा, 

छू गया है, पास से,

कहता हुआ, 

वो बात अपनी..सच कहूं 

नजदीक से, 

तुम कौन हो? 

मुसाफिर हो.., टूरिस्ट हो, 

आते रहो हर साल,ऐसे 

इसलिए ये समां है,ये घुमड़ते रूप हैं।

जय प्रकाश मिश्र



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